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________________ n] मिति थी । क्यों कि इस वृत्तिकी वाक्यशैलीका कन्होंने अपने महान् ग्रन्थमें उत्तम अनुकरण किया है, इतना मात्र हो नहीं है परंतु इसमें जितने उत्तम उत्तम धार्मिक भावनावाले वाक्य हैं वे सब एक दूसरी जगह ज्यों के त्यों अन्तर्हित भी कर लिये हैं। उदाहरण के लिये चतुर्थ प्रस्तावमें जहां पर वाहन राजा विचक्षण नामके सूरिके पास जा कर बैठता है, तब सूरिने जो उपदेशारमक वाक्य उसे कहे हैं वे सब सिद्धर्षिने ललितविस्तरा ही मैसे ज्यों के त्यों उद्धृत किये हैं। ( देखो, उपमि. पृ. ४७७, और लालित० १.४६-७ )। इसी तरह, सातवें प्रस्तावमें भी एक जगह बहुतसा उपदेशात्मक अवतरण यथावत् उद्धृत ( अन्तर्हित) किया हुआ है (उपमि. पृ १०९२ और ललित. पृ. १६६ ) । इससे यह निश्चित ज्ञात होता है कि सिद्धर्षिक यह ग्रन्थ बहुत प्रिय था और इस प्रियता में कारणभूत, किसी प्रकारका इस ग्रन्थका, उनके ऊपर विशिष्ट उपकारकत्व ही होगा । विना ऐसे विशिष्ट उपकारकत्वके, उक्त रीतिसे, इस ग्रन्थका सिद्धर्षिद्वारा बहुमान किया जाना संभवित और संगत नहीं लगता । जिस ग्रन्थके अध्ययन वा मननसे अपना आत्मा उपकृत होता है, उस ग्रन्थ के प्रणेता महानुभावको भी अपना उपकारी मान मा-समजना और तदर्थ उसको नमस्कारादि करना, यह एक कृतज्ञ और सज्जनका प्रसिद्ध लक्षण है, और वह सर्वानुभव सिद्ध ही है । अतः हरिभद्रके समकालीन न होने पर भी सिद्धर्षिका, उनको गुरु तया पूज्य मान कर नमस्कारादि करना और उन्हें अपना परमोपकारी बतलाना तथा उनकी बनाई हुई ललितविस्तरा वृत्तिके लिये ' मदर्थेव कृता--मानों मेरे लिये की गई' की भावनात्मक कल्पना करना सर्वथा युक्तिसंगत है । हरिभद्र सूरिका समय-निर्णय । उपर्युक्त कथनानुसार सिद्धर्षि हरिभद्रसूरिकी अपेक्षासे अनागत याने भविष्यकालवर्ती थे, यह बात निश्चित सिद्ध होती है । इसी बातका विशिष्ट उल्लेख उन्होंने, उपमिति० के प्रथम प्रस्ताव में और भी स्पष्ट रूप से कर दिया है। इस प्रस्तावमें, सिद्धर्षिने, निष्पुण्यक भिखारीके राजमन्दिरके चौकमें ४१ प्रविष्ट होने पर उस पर महाराजकी दयार्द्र दृष्टिके पडनेका, और उस दृष्टिपातको देख कर, महाराजकी पाकशाला के धर्मबोधकर नामक अधिकारीके मनमें, उसके कारणका विचार करनेका, जो रूपकात्मक वर्णन दिया है, उस वर्णनको फिर अपने अन्तरङ्ग जीवन ऊपर घटाते हुए तथा रूपकका अर्थ स्फुट करते हुए उन्होंने लिखा है कि " यथा च तां महाराजदृष्टिं तत्र रोरे निपतन्तीं धर्मबोधकराभिधानो महानसनियुक्तो निरीक्षितवानित्युक्तम्, तथा परमेश्वरावलोकनां मज्जीबे भवतीं धर्मबोधकरणशीलो ' धर्मबोधकर: ' इति यथार्थाभिधानो मन्मार्गोपदेशकः सूरि : 'स निरीक्षते स्म, ( उपमिति. पृ. ८० ) : 4 अर्थात् ' पहले जो भोजनशालाके अधिकारी धर्मबोधकरने उस भिखारीपर पड़ती हुई महाराजकी दृष्टि देखी ' ऐसा कहा गया है, उसका भावार्थ धर्मका बोध (उपदेश) करनेमें तत्पर होनेके कारण 'धर्मबोधकर' के यथार्थ नामको धारण करने वाले ऐसे जी मेरे मार्गोपदेशक सूरि हैं, उन्होंने मेरे जीवन ऊपर पड़ती हुई परमेश्वरकी अचलोकना ( ज्ञानदृष्टि ) को देखी, ऐसा समझना चाहिए । , इस रूपकको अपने जीवनपर इस प्रकार उपमित करते हुए सिद्धर्षिके मनमें यह स्वाभाविक शंका उत्पन्न हुई होगी कि, 'रूपकमें जो धर्मबोधकरका, भिखारीपर पडती हुई दृष्टिके देखनेका वर्णन दिया गया है वह तो साक्षात्रूपमें है। अर्थात्, जब भिखारी ऊपर महाराजकी दृष्टि पडती थी तब धर्मबोधकर ( पाकशालाधिपति ) वहां पर प्रत्यक्ष रूपसे हाजर था । परंतु इस उपमितार्थमें तो यह बात पूर्णरूप से घट नहीं सकती । क्यों कि, परमेश्वर तो सर्वज्ञ होनेसे उनकी दृष्टिका पडना तो मेरे ऊपर वर्तमान में भी सुघटित है. परंतु जिनको मैंने आपना धर्मबोधकर गुरु माना हैं. वे ( हरिभद्र) सुरि तो मेरे इस वर्तमान जीवनमै विद्यमान हैं। ही नहीं और न वे परमेश्वरकी तरह सर्वज्ञ ही माने जा सकते हैं, इस लिये इस उपमानकी अर्थ Aho! Shrutgyanam
SR No.009877
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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