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________________ २३ अंक १] हरिभद्र सूरिका समय-निर्णय । लिये प्रथम हम यहां पर, उनके कुछ प्रसिद्ध प्रास- १३ पंचवस्तुप्रकरणटीका । द्ध ग्रंथोंकी नामावली दे देते हैं। हरिभद्रसूरिने १४पंचसूत्रप्रकरणटीका। अपने जीवनमें जैन साहित्यको जितना पुष्ट किया १५ प्रज्ञापनासूत्रप्रदेशव्याख्या। है उतना अन्य किसीने नहीं किया। उनके बना- १६ योगदृष्टिसमुच्चय । से हुए ग्रंथोंकी संख्या बहुत ही बडी है । पूर्वपरं- १७ योगबिन्दु। राके कथनानुसार, वे १४०० या १४४० अथवा १८ ललितविस्तरा नामक चैत्यवन्दनसूत्रवृत्ति । १४४४ ग्रंथोंके प्रणेता बतलाये जाते हैं ! यह १९ लोकतत्त्वनिर्णय । संख्या हमारे जैसे आजकल के मनुष्योंको बहुत २० विंशतिकाप्रकरण । ही अधिक और अतएव आतिशयोक्ति पूर्ण मालूम २१ षड्दर्शनसमुच्चय । देती है। परंतु साथमें यह बात भी अवश्य खया- २२ शास्त्रवार्तासमुच्चय, स्वकृतव्याख्यासहित । सम रखने लायक है, कि इस संख्याके सूचक २३ श्राषकप्राप्ति । उल्लेख ८ सौ ९ सौ जितने वर्षोंसे भी अधिक पुरा. २४ समराइच्चकहा। में मिलते हैं। इस संख्याका अर्थ चाहे जैसा हो, २५ सम्बोधप्रकरण । परंतु इतनी बात तो पूर्ण सत्य है कि वर्तमानमें २६ सम्बोधसप्ततिकाप्रकरण । जितने ग्रंथ जैन साहित्यमें हरिभद्र के नामसे हरिभद्रसूरिके बनाये हुए ग्रंथोंकी संख्या इतनी प्रचलित और प्रसिद्ध हैं, उतने अन्य किसीके विशाल होने पर भी, उसमें कहीं पर, उनके जीवननामसे नहीं। और यही एक बात उनके अपार- के सम्बन्ध में कुछ भी विशेष बात लिखी हुई नहीं मित ग्रंथकर्तृत्वकी पुष्टिम स्पष्ट प्रमाण-स्वरूप है। मिलती । भारतके अन्यान्य प्रसिद्ध विद्वानोंकी तर. वर्तमानमें उपलब्ध होनेवाले उनके ग्रंथों से वि. ह उन्होंने भी अपने ग्रंथों में, अपने जीवनसंबंधी शेष प्रसिद्ध, प्रतिष्ठित और प्रौढ ग्रंथोंके नाम इस किसी प्रकारका उल्लेख नहीं किया। लिखने में मात्र प्रकार हैं: अपने संप्रदायका, गच्छका, गुरुका और एक विदुषी १ अनेकान्तवाद प्रवेश। धर्मजननी आर्याका नाम कई जगह लिखा है। यह २ अनेकान्तजयपताका स्वोपत्रवृत्ति सहित।। भी एक सौभाग्यकी बात है। क्योंकि दूसरे ऐसे ३ अनुयोगद्वार सुत्रवृत्ति । अनेक विद्वानोंके बारेमें तो इतना भी उल्लेख नहीं ४ अष्टकप्रकरण। मिलता। हरिभद्रके किये हुए इन गुर्वादिके नामांके ५ आवश्यकसूत्रबृहद्वृत्ति। उल्लेखानुसार,उनका संप्रदाय श्वेताम्बर था। गच्छ६ उपदेशपदप्रकरण । का नाम विद्याधर, गच्छपति आचार्यका नाम जिन७ दशवकालिकसूत्रवृत्ति। भट, दीक्षाप्रदायक गुरुका नाम जिनदत्त, और धर्म८ दिग्नागकृत न्यायप्रवेशसूत्रवृत्ति । जननी साध्वीका नाम याकिनी महत्तरा था। इन ९ धर्मबिन्दुप्रकरण। सब बातोका उल्लेख, उन्होंने एक ही जगह, आव१० धर्मसंग्रहणीप्रकरण । श्यकसूत्रकी टीकाके अंतमें इस प्रकार किया है:११ नन्दीसूत्रलघुवृत्ति ।। __ " समाप्ता चेयं शिष्यहिता नामावश्यकटीका । १२ पंचाशकप्रकरण । कृतिः सिताम्बराचार्यजिनभटनिगदानुसारिणो विद्या८ इस विषय के उल्लेखोंके लिये देखो पं. श्रीहरगोविन्द याकिनीदास लिखित संस्कृत 'हरिभद्रसूरिचरित्रम् ।' पृष्ठ १६.२० । महत्तरासूनोरल्पमतेराचायेहरिभद्रस्य ''।" ९ हरिभद्रसूरिके उपलब्ध सब ही ग्रथोंके नामसंग्रहके १०. देखो, पिटर्सन साहबकी ३ री रिपोर्ट, पृष्ठ २०१७ लिये. देखो, जैन ग्रंथावली, पृ. ९८-१०३, तथा उक्त तथा ४ थी रिपोर्ट, परिशिष्ट, पृष्ठ ७। वेबर साहबकी पंडित लिखित हरिभद्रसूरिचरित्र, पृ. २०-३.। बलिनकी रिपोर्ट, पुस्तक २, पृष्ठ ७८६। Aho! Shrutgyanam
SR No.009877
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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