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________________ २३ जैन साहित्य संशोधक [भाग १ प्रपञ्चा कथा ' नामक धार्मिक नीतिके खरूपको नामक उपयुक्त पुस्तक प्रकट हुई । इस पुस्तअनुपम रीतिसे प्रदर्शित करनेवाले संस्कृत साहित्यके कमें अन्यान्य प्रसिद्ध जैन नैयायिकोंके समान एक सर्वोत्तम ग्रंथके रचयिता जैन साधु सिद्धर्षिका हरिभद्रके समयके विषयमें भी विद्याभूषणपरिचय लिखते हुए, साथमें इन हरिभद्र जीने अपना विचार प्रदर्शित किया है। परंतु सूरिके समयका भी उल्लेख किया था । इसके १२ वीं शताब्दीमें होने वाले इसी नामके बाद डॉ. क्लाट (Klatt), प्रो० ल्यम (Leu• पक दसरे आचार्यके साथ इनकी कछ कृतियों mann ) जेकोबी (Jacobi), बेलिना (Ballini) का सम्बन्ध लगा कर इस विषयमें कुछ और और मिरोनौ (Mironov) आदि अन्य विद्वानोंने उलटी गडबड फैलानेकी चेष्टाके सिवा अन्य अ. भी प्रसंगवशात् अपने अपने लेखोंमें इस विषयका धिक वे कुछ नहीं कर सके। प्रस्तुत हरिभद्र के यथासमय थोडा बहुत विचार किया हुआ दिखाई उन प्रसिद्ध दार्शनिक ग्रंथोंका, जिनका निर्देश देता है। परंतु इन सबमें जैनधर्मके विशिष्ट अ. आगे पर किया जायगा, नामोल्लेस तक भी विद्याभ्यासीडॉ. जेकोबीका परिश्रमविशेष उल्लेखके योग्य भूषणजी अपनी इस पुस्तकमें नहीं कर सके। है। उन्हो ही ने सबसे पहले हरिभद्रके समयकानि- इससे यह ज्ञात होता है कि उनको हरिभद्रके देश करनेवाले पुरातन कथनके सत्य होने में सन्देह विशाल साहित्यका कुछ भी हाल मालूम नहीं हो प्रकट किया था। सन् १९०५ में भावनगर (हाल सका । तदनन्तर रसियन विद्वान् डॉ. मीरोनौ 'बाम्बई) निवासी जैन गृहस्थ मि. एम्. जी. काप- ने भी अपने 'दिग्नागका न्यायप्रवेश और डिया, सोलीसिटर, के कुछ प्रश्न करने पर उक्त उसपर हरिभद्र की टीका' इस शीषक लेख डॉ. साहबने, इस विषयमे फिर विशेष ऊहापोह में, (जो बनारसके जैनशासन नामक एक सामकरना शुरू किया, और अन्तमें अपने शोधके परि- यिक पत्रके विशेषांक में छपा है) प्रस्तुत प्रश्न के णाममें जो कुछ निष्कर्ष मालूम हुआ, उसको, सम्बन्धमें कुछ मीमासा की है। 'उन्होंने 'बिब्लीओथिका ईडिका' में प्रकाशित यद्यपि डॉ. जेकोबीने, जैसाकि ऊपर लिखा गया उपमितिभवप्रपञ्चा कथाकी प्रस्तावनामें लिपिबद्ध है, इस विषयमें कुछ विशेष ऊहपोह कर महत्त्वके कर प्रकट किया। इसी बीचमें डॉ. सतीशचंद्र मुद्दोंका विचार किया है, तथापि हरिभद्र के सब ही विद्याभूषण महाशयकी ‘मध्यकालीन भारतीय ग्रंथोका सक्ष्मदृष्टिसे अवलोकन कर उनमे मिलते न्यायशास्त्रका इतिहास' ( History of the Me- हुए आंतर प्रामाणोंके खोजेनेकी उन्होंने बिल्कुल diaval school of Indian Logic. चेष्टा नहीं की, और इस लिये वे अपने मंतव्यके ३ Klatt, Onomasticon. समर्थनार्थ निश्चयात्मक ऐसे कुछ भी प्रमाण नहीं दे x Zeitschrift der Deutschen Morgen) र सके । इस प्रकार यह प्रश्न अभी तक विना हल and, Gesellschaft, XLIII, A. p. 348. " हुए ही जैसा का वैसा संशयात्मक दशामें विद्य. ५ Ballini, Contributo allo studio della मान है । आजके इस लेखका उद्देश, हरिभद्रके upo Katha etc. (R Acad dei Lincei. Rem. प्रथसमूहका ध्यानपूर्वक निरीक्षण कर उनसे dicontixV ser.b, a scc. 5, 6, 12, p. 5. मिलते हुए आंतर प्रमाणोंके आधार पर तथा .... ६'जैन शासन दीवालीनो खास अंक और भी बाह्य प्रमाण जितने मिल सके हैं उन ७ डॉ. जेकोबी और मि. कापडियाके बीच में जो पत्र- सबका ठीक ठीक विचार कर, इस प्रश्न का निराव्यवहार इस विषयमें हुआ था, वह बम्बईसे प्रसिद्ध होने. करण करना है। बाले 'जैन श्वेताम्बर कान्फरन्स हेरल' नामक पत्रके ई.स. हारभद्रसूरिके समयका निर्णय, मुख्य कर उनके १९१५के जुलाई माक्टोबर मासके संयुक्त अंकों में प्रकट बनाये हुए प्रथोमेसे मिलते हुए साधक-बाधक ऐसे आंतर प्रमाणोंके ऊपर आधार रखता है। इस हुआ है। Aho! Shrutgyanam
SR No.009877
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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