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________________ जैन साहित्य संशोधक. [भाग १ आह च वादिमुख्यः समन्तभद्रः भवन्त्यभिप्रेतफला यतस्ततो 'बोधात्मा चेच्छदस्य न स्यादन्यत्र तच्छ्रतिः ।। भवन्तमार्याः प्रणता हितैषिणः ॥ यहोद्धारं परित्यज्य न बोधोऽन्यत्र गच्छति ॥ यही पद्य मलयगिरिसूरिने आवश्यकसूत्रकी अपनी अपूर्ण टीकामे, 'आद्यस्तुतिकारोऽप्याह'न च स्यात्प्रत्ययो लोके यः श्रोत्रा न प्रतीयते । । आद्य-- प्रथम स्तुतिकार भी कहते हैं-ऐसा उल्लेख शब्दाभेदेन सत्येवं सर्वः स्यात्परचित्तवत्* ' | कर, उध्दृत किया है । इस उल्लेखसे स्पष्ट जान, अनेकान्तजयपताका पृ. ४३ ( अमदाबाद )। जाता है कि ये प्रसिद्ध स्तुतिकार माने जाते थे इतआचार्यवर्य हेमचंद्रने अपने सिद्धहमशब्दानु- ना ही नहीं परंतु आद्य---सबसे पहले होने वालेशासन नामक व्याकरणके प्रारंभमें, दूसरे सूत्रकी स्तुतिकारकामान प्राप्त थे।हरिभद्रादिश्वेताम्बराग्रणी व्याख्यामें 'स्तुतिकारोऽप्याह' ऐसा उल्लेख कर आचार्योंने सिद्धसेन दिवाकरको भी वादिमुख्य निम्न गत स्तुतिपद्य उद्धृत किया है जो इन्हीं सम- और स्तुतिकारके विशेषणोंसे उल्लिखित किया है। न्तभद्र स्वामीका बनाया हुआ है और बृहत्स्वयम्भू और उपर्युक्त प्रमाणानुसार समन्तभद्र स्वामिको स्तोत्रमें उपलब्ध होता है । पद्य यह है भी इन्हीं विशेषणोंसे अलंकृत किया है। इससे नयास्तव स्यात्पदलाञ्छना इमे यही अनुमान हो सकता है कि श्वेताम्बरोकी दृष्टि में सिद्धसेन और समन्तभद्र दोनों समान पूज्य रसोपविद्धा इव लोहधातवः । और समान सत्कारास्पद हैं। इधर, सिद्धसेन , 'समन्तभद्र ' यह नाम टीकामें लिखा है, जो स्वयं सूरिको भी जिस प्रकार श्वेताम्बराचार्योंने अपना ग्रंथकार ही की बनाई हुई है। मूलमें केवल 'वादिमुख्य' श्रद्धास्पद और प्रमाणभूत पुरुष माना है, वैसे, विशेषण ही का उल्लेख है। जैसा कि हम ऊपर सप्रमाण लिख आये हैं, दिग*शानस्याचार्य विरचित प्रमाणकलिका और वादी देवसूरि म्बराचार्योंने भी उन्हें अपना स्तुतिपात्र और शिररचित स्याद्वादरत्नाकरमें भी ये दोनों श्लोक समन्तभद्रके सावंद्य माना है। अतः दिगम्बरोंकी दृष्टिमें भी नामसे अवतारित हैं । जहां तक हम जान सके, समन्त सिद्धसेन और समन्तभद्र दोनों समान गुणगणाभद्रकी उपलब्ध हतियोंमेंसे किसीमें भी ये श्लोक नहीं लंकृत हैं । इससे यह स्वतः सिद्ध हो गया कि, पाये जाते । इस लिये, यह स्पष्ट मालूम पडता है कि स्वा. समग्र जैनसमाज और जैन साहित्यमें इन दोनों मांकी केवल इतनी ही कृतिये नहीं है जो अभीतक जानी महापुरुषोंका ज्ञानप्रभान्वित, सत्त्वपरिपूर्ण और दनके सिवा और भी कृतियें होनी चाहिए जो निग्रन्थगणवन्य सिंहासन, समान स्थान और समाअद्यापि अज्ञात या अप्राप्य हैं। न रूपमें संस्थापित है। म Aho! Shrutgyanam
SR No.009877
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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