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________________ सिखसेन दिवाकर और स्वामी समन्तभद्र। प्रकार ‘अष्टसहनी' को 'षोडशसहस्री' बना निर्माता आत्मज्ञानी शुभचन्द्रने समन्तभद्रके कृतिकर उसके महत्त्वको द्विगुणित कर दिया है। सं- स्वरूप सूर्यके सम्मुख अपनी कृतिको खद्योततुल्य पूर्ण जैन साहित्यमे यही एक ऐसा ग्रंथ है, जिस उपहासपात्र लिख कर समन्तभद्रके वचनोंकीमहः पर, दसरे संप्रदायके एक ऐसे विद्वान्ने व्याख्या चापका की है... लिखी है, जो योग्यता मूल कर्तासे रत्तीभर भी न्यून नहीं हो कर, सवेथा सांप्रदायिक-भावका समन्तभद्रादिकवीन्द्रभास्वतां पूर्ण समर्थक था। __ स्फुरन्ति यत्रामलसूक्तरश्मयः । । समन्तभद्र स्वामीके इन महान् टीकाकारोके सिवा जिनसेन, वादीभसिंह, वीरनन्दी, शुभच व्रजन्ति खद्योतवदेव हास्यता न्द्राचार्य इत्यादि अन्यान्य सभी प्रसिद्ध प्रसिद्ध न तत्र किं ज्ञानलवोद्धता जनाः।। दिगम्बर ग्रंथकारोने भी उनके कवित्व, वाग्ग्मित्व चन्द्रप्रभचरितके कर्ता महाकवि वीरनन्दीने, और पाण्डित्यकी भूरि भूरि प्रशंसा और स्तुति मोतियोंके बने हुए हारसे कंठको विभूषित करना की है । और सभाने उनको जैन धर्मका एक महा- दुर्लभ नहीं है, परन्तु समन्तभद्रके वचनरूप मुक्तान संरक्षक और समर्थक रूपमें स्वीकृत किया है। फलस गंथे हुए काव्यस्वरूपहारसे कंठको अलंकृत राष्ट्रकूट वंशीय प्रतापी नृपति महाराजा अमोघ- करना परम दुर्लभ बतलाया हैवर्षक परमगुरु और सुप्रसिद्ध महापुराण आदिपुराणके कर्ता महाकवि जिनसेनने अपने पुराणकी गुणान्विता निर्भलवृत्तमौक्तिका प्रस्तावनामें स्वामी समन्तभद्रकी प्रशंसा करते हुए ___ नरोत्तमैः कण्ठविभूषणीकृता । निम्नगत उद्गार प्रकट किये हैं न हारयष्टिः परमेव दुर्लभा नमः समन्तभद्राय महते कविवेधसे । समन्तभद्रादिभवा च भारती ॥ यद्वचोवज्रपातेन निर्मिन्नाः कुमताद्रयः ॥ इसी प्रकार और भी अनेकानेक ग्रन्थकारोंने कवीनां गमकानां च वादीनां वाग्मिनामपि । विविध प्रकारसे समन्तभद्र स्वामीकी स्तवना यशः सामन्तभद्रीयं मूनि चूडामणीयते॥ और प्रशंसा की है । इतना गौरव शायद ही हरिवंश महापुराणके प्रणेता जिनसेन (प्रथम) ने भी स्वकीय पुराणके प्रारंभमें समन्तभद्रके वच. अन्य किसी आचार्यका किया गया हो । नको भगवान महावीरके वचनतुल्य लिखा है। यथा जीवसिद्धिं विधायेह क्रतयक्त्यनशासनम् । दिगम्बर विद्वानोंने तो समन्तभद्र स्वामीको वचः समन्तभद्रस्य वीरस्येव विजृम्भते ॥ इस प्रकार आपना प्रमाणभूत पुरुष माना ही है गद्यचिन्तामाणि नामक सुप्रसिद्ध गद्यकाव्यके परंतु श्वेतांबर विद्वानोंने भी उनकी प्रामाणिका प्रगण्यताका खुले दिलसे स्वीकार किया है। हरि रचयिता महाकविवादीभसिंहने समन्तभद्रके वच भद्र, वादी देव, हेमचन्द्र और मलयगिरि से नस्वरूप वज्रपातके कारण परवादरूप करोडों श्वेताम्बरशिरोमाण सूरियोने भी प्रसंगोपात्त उनपर्वत चूरचर हो गये बतलाये हैं । यथा-- की कृतिका उल्लेख या अवतरण कर उन्हें एक सरस्वतीस्वैरविहारभूमयः प्रमाणभूत पुरुषकी कोटिमें स्थान दिया है। हरिसमन्तभद्रप्रमुखा मुनीश्वराः । भद्रसूरिने उनको 'वादिमुख्य ' के महत्त्व-सूचक जयन्तु वाग्वजनिपातपाटित विशेषणसे सम्बोधित किया है और अनेकान्तप्रतीपराद्धान्तमहीध्रकोटयः॥ जयपताकामें निम्न लिखित दो श्लोक इनके नामसे अध्यात्मज्ञानके समुद्रस्वरूप मानार्णव ग्रन्थके उद्धत किये हैं । यथा Aho! Shrutgyanam
SR No.009877
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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