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________________ अंक २] डॉ. हर्मन जेकोबीनी जैन सूत्रोनी प्रस्तावना. थई गयां छे, तो पण दृष्टिवाद अने तेमां अंतर्गत एि छीए त्यारे निःसंदेहरीते प्रतीत थाय छ के, थएलां चौद पूर्वोना विषयोनी विस्तृत सूचि अद्या. जे समये पाटलीपुत्रना संघे अंगसाहित्य एकत्र वधि समवायांग नामना,चोथा अंगमां तथा नन्दी- कर्यु हतुं, तेज समयथी पूर्वोनुं ज्ञान व्युच्छिन्न थतुं सूत्रमा आपली जावामा आव छ. आ हाष्टवाद- चाल्यु हतु,एवी जे हकिकत कहेवाय छ, ते तहन मां आवेलां पवा त खास मूळ पवाज हतां के, जेम वास्तविक छे. उदाहरण तरीके भद्रबाहु पछी चौहुं मानु, छू, तेना साररूप हता. तेनो आपणे नि. दमांथी दशज पूर्वोनुं ज्ञान अवशिष्ट रह्यं हतु, एवं श्चय करी शकता नथी. गमे तेम हो परंतु तेमां जे कथन छे ते आपी शकाय छे. समाएला विषयोना संबंधमां एक घणी विस्तृत आ उपरथी खात्री थशे के चौद पूर्वविषयक प्रचपरंपरा तो अवश्य जोवामां आवे छे. लित परंपरानो अमे जे एवो खुलासो करेलो छे के खरेखर आपणे, कोई पण नष्ट ईगएला एवा अ. म. पूर्वो ते सौथी प्राचीन सिद्धान्तग्रंथो हता, अने तेना ति प्राचीन ग्रंथ या ग्रंथसमूहना विषयमा मळी पळी तेनं स्थान एक नवा सिद्धान्ते लीधं हतं. ते आवती परंपराने साची मानी लेवामां घणीज याक्तिसंगत छे. परंतु आटलो खलासो आप्या वाद् सावधानी रखवानी जरूर छे. कारण के आवा । आ प्रश्न उभो थाय छे के आवी रीते प्राचीनसिप्रकारनी प्राचीन परंपरा, घणीक वखत कटलाक शान्तनो त्याग करवामां तथा नवा सिद्धान्तनं नि. ग्रंथकारीद्वारा पोताना सिद्धान्तोनी प्रामाणिकताना रुपण करवामांशं प्रयोजन उपस्थित थयं हशे? परावा-रूप कल्पा काढवामां आवा हाय छ. परतु आविषय मात्र कल्पना सिवाय अन्य कोई गति प्रस्तुत बाबतमां, पूवाना विषयमा मळी आवती नथी. अने तदनुसार मारो स्वतंत्र अभिप्राय आ आटली बधी सामान्य अने प्राचीन परंपरानी स- प्रमाणे छ:-आपणे जाणीप छीए के दृष्टिवाद नात्यताना विषयमा शंका करवाने आपणने कोई मना बारमा अंगमां चौद पूर्वो आवेलां हतां तथा ते कारण जणातुं नथी. कारण के अंगोनी प्रामाणिक- प्रर्वोमां मख्यत्वे करीने दृष्टिओनं एटले जैन अने ता ते काई पूर्वोने लईने मानवामां आवती नथी. जैनेतर दर्शनोना तात्त्विक विचारो-आभिप्रायोजें अंगो तो जगतना निर्माणना समकालीन ( पटले वर्णन करेलं हतं. आ उपरथी आपणे एम कल्पी अनादि ज) मनाय छे. तेथी जो पूर्वो संबंधी आ शकीए छीए के तेमां महावीर अने तेमना प्रतिस्पर्धी परंपराने मात्र एक कूटलेख रूपेज मानीए तो तेनो धर्मसंस्थापकोनी वञ्चे थएला वादोनुं वर्णन आवेकोई पण अर्थ थई शक नहीं. परंतु तेने जो सत्य- लं हशे. मारा आ अनुमानना समर्थनमा प्रत्येक रूपे मानी लईए तो, जैनसाहित्यना विकासविषः पर्वना नामना अंते जे 'प्रवाद' ए शब्द मकवामां यक आपणा विचारो साथे ते बराबर बंधबसती आव्यो छे ते आपी शकाय छे. आ उपरांत ए पण आवी जाय छे. 'पूर्व' ए नामज ए वातना पूरेपूरी कवात ध्यानमा राखवानी छ, के महावीर कोई साक्षी आपे छे के तेनुं स्थान पाछळयी बीजा एक एक नवा धर्मना संस्थापक न हता, परंतु, जेम में नवा सिद्धान्ते लीधुं हतुं. अर्थात् पूर्वनो अर्थ पहेलानुं सिद्ध करेलं छे, तेओ एक प्राचीन धर्मना सुधारक एवो थाय छे. अने आ दृष्टिए ज्यारे आपणे विचा. मात्र ज हता. तेथी पण ए घणंज संभवित छ के १ See ,Weber', Indische Studien; XVI महावीरने पोताना प्रतिप्रक्षिओना अभिप्रायोजें मजबुतरीते खंडन करवं पडधुं हशे; अने जाते २. 'पूर्व 'शब्दनो अर्थ जैनाचार्योए नीच मुजब सम- स्वीकारेला अगर सुधारेला एवा पोताना सिद्धाजावेलो छ:-तीर्थकरे पातेज प्रथम पाताना गणधर नाम स्तोतं घणंज समर्थन करवं पड़यं हशे आम कहेंप्रसिद्ध शिष्योने पूर्वांनं ज्ञान आप्यं हतं. त्यार पछी गणध. रेए अंगोनी रचना करी, आ कथन, पहेलाज तीर्थकरे अंगो वार्नु कारण ए छे के प्रत्येक धर्मसंस्थापकने यथाप्ररुपेला छे एवा आग्रह साथे जेटले अंशे ऐक्य भरावत थैमा पोताना नवा सिद्धान्तोन प्रतिपादन करवा नथी, तेटल अंशे ते खरेखर सत्य गर्भित लेखावा योग्य . पूरतो ज प्रयत्न करवानी आवश्यकता रहे छे. तेने p.341. Aho! Shrutgyanam
SR No.009877
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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