SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अंक १] सिद्धसेन दिवाकर और स्वामी समन्तभद्र। जनाऽयमन्यस्य भूतः पुरातनः अर्थात् मरे बाद सब ही पुरातन माने जाते हैं। भला, पुरातनैरेव समो भविष्यति । ऐसी अनवस्थित पुरातनताके कारण कौन बुद्धिमान पुरातनष्वित्यनवस्थितषु कः पुरातनोक्तान्यपरीक्ष्य रोचयेत् ॥ मनुष्य किसी प्रकारकी परीक्षा किये विना. ओरल इसका भावार्थ यह है। दिवाकरजी पुरातन-पियों . र मुंद कर, केवल पुरातनोंके नामहीसे चाहे जिस सि. को उद्दिष्ट करके कहते हैं कि, पुरातन पुरातन क्या द्धान्तका रवीकार कर लेगा? पकारा करते हो, यह (में) जन भी मरने बाद, कुछ नियों के प्रति इस प्रकार स्पष्ट कहा है: ___ इसी तरह एक जगह और भी दिवाकरजीने पुराकाल अनन्तर पुरातन हो जायगा और फिर अन्य 'यदेव किश्चिद्विषमप्रकल्पितं पुरातनोहकि समान इसकी भी गणना होने लगेगी। पुरातनरुक्तमिति प्रशस्यते । बार पढकर देखा परतु सबका आशय स्पष्ट रीतिसे यदुत विनिश्चिताऽप्यद्यमनुष्यवाक्कृतिकम समझमें आता है। अफसोस तो इस बातका है कि र्न पठ्यते रमतिमोह एव सः॥ अथात् पुरातनोंने चाहे अयुक्त भी कहा हो तो भी गये हैं, परतु किसीने भी इन द्वात्रिंशिकाओंका अर्थ स्मुट उनके कथनकी तो प्रशंसा ही करते रहना और आजकरनेके लिये 'शब्दार्थमात्र प्रकाशिका' व्याख्या भी कलक-वर्तमानकालीन-मनुष्योंकी यक्तिद्वारा सुनिलिखी हो ऐसा ज्ञात नहीं होता ! इसका कारण हमारी समझमें नहीं आता ।इन द्वात्रिंशिकाओंकी अपूर्वार्थता और श्चित विचारवाली भी वाणी (कृति) को पढना तक काकी महत्ताका खयाल करते हैं, तब तो यह विचार नहीं! यह केवल मुग्ध मनुष्यांका स्मृतिमोह है; अन्य आता है कि इनके ऊपर अनेक वार्तिक और बड़े बड़े कुछ भी नहीं। व्याख्यान लिखे जाने चाहिए थे । और, 'न्यायावतार' के उनके ऐसे ही और भी अनेक चुभनेवाले उद्गार यत्र ऊपर ऐसे अनेक वार्तिक और व्याख्यान लिखे भी गये हैं। तत्र दृष्टिगोचर होते हैं। मालूम पडता है कि दिवाकफिर नहीं मालूम, क्यों इन सबके लिये ऐसे नहीं किया रजीके ऐसे कोरे परंतु युक्तियुक्त जवाबीको सुनकर गया। शायद अतिगूढार्थक होनेहीके कारण इनका रहस्य प्रकट करनेके लिये किसीकी हिम्मत न चली हो। योग्य । उनके विरोधी निरुत्तरित हो कर मन ही मनमें खूब और बहुश्रुत विद्वानोंके प्रति हमारा निवेदन है कि वे चिढते रहते होंगे; और जिस तरह आजकलके पुरा इनका अर्थ स्फुट करनेके लिये अबश्य परिश्रम करें। इन णप्रिय मनुष्य, जब स्वतंत्र विचारवाले किसी बुद्धिकृतियों में बहुत ही अपूर्व विचार भरे हुए हैं। हमारे विचा- मान विचारकके विचारोंका समाधान नहीं कर सकते रसे जनसाहित्य भरमें ऐसी अन्य अपूर्व कृतियां नहीं हैं। तब, अपने भक्तोंके सामने अपनी प्रतिष्ठा कायम रखसुप्रसिद्ध आचार्य हेमचंद्रने 'अन्ययोगव्यवच्छेद' और र नेके लिये, नवीन विचारोंपर नास्तिकताका आरोप • अयोग्यव्यवच्छेद 'नामकी दो द्वात्रिंशिकायें बनाई हैं (जिनमेंसे एकके ऊपर मल्लिषेणसरिने 'स्याद्वादमंजरी करके उनका उपक्षा करन-करानका नाटक करतेनामक विद्वप्रिय उत्तम व्याख्या लिखी है ), वे इन्हींकी सिद्धसेनसरिका यह उदगार उनके समकालीन और अनुकरण हैं। स्वयं हेमचंद्रसूरिने अपनी प्रथम द्वात्रिंश- सहवासी महाकवि कालिदासक मालविकाग्निमित्रमेके-- काके प्रारंभहीमें सिद्धसनरिकी कृतियाँका महत्व बतला 'पुराणमित्येव न साधु सर्व ते हुए लिखा है कि न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम्। ‘क सिद्धसेनस्तुतयो महार्थी सन्तः परीक्ष्यान्यतरद्भजन्ते आशिक्षितालापकला क चैषा।' मूढः परप्रत्ययनेयबुद्धिः॥' अर्थात्-सिद्धसेनरिकी बनाई हुई महान् अर्थवाली इस उद्गारके साथ कितनी अर्थसमता रखता है ! महाकवि स्तुतियां कहाँ और अशिक्षित मनुष्यके आलाप कालिदास और सिद्धसेन दिवाकर दोनों महाराज वीरविक्र जैसी मेनी यह रचना कहाँ। इसी कथनसे ज्ञात हो मादित्यकी राजसभाके उज्ज्वल रत्न थे। मालूम पडता है जायगा कि सिद्धसेनसूरिकी ये रतुतियाँ कैसी महत्त्ववाली दोनोंकी अलौकिक प्रतिभा और लोकोत्तर कृतियोंने उस हैं। इन बहुतसी द्वात्रिंशिकाओमें मुख्य कर अर्हन् महा. समयके पुराणप्रिय पण्डितोंको ईर्ष्यालु हृदया बना दिये होंगे वीरकी अनेक प्रकारसे स्तवना की गई है, इस लिये इनको और अतएव वे सर्व साधारणमें पुरातनताके बहाने इनके स्तुतिय कहते हैं, और अतएव बहुतसी जगह 'आह च गौरवमें न्यूनता लानेकी व्यर्थ चेष्टायें किया करते होंगे। स्तुतिकारः ' ऐसा उल्लेख सिद्धमनसूरिके लिये किया शायद ऐसे ही ईादग्ध विदग्धोंको मौनव्रत दिलानेके गया है। लिये इन समर्थ पुरुषोंको ये उद्गार निकालने पडे होंगे। Aho! Shrutgyanam
SR No.009877
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy