SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन साहित्य संशोधक । बनाते जा रहे थे, उसी पद्धतिका आश्रय ले कर निर्ग्रन्थ क्षपणकोंने भी ' स्याद्वाद ' के सिद्धान्तको समर्थ और सुस्थित बनाकर महावीरदेव के शासनको अचल बनानेका निश्चय किया । उन्होंने सोचा कि पाली पिटकोंके पारायण मात्रसे जिस प्रकार बौद्ध श्रमण अपने शासनका संरक्षण करनेमें समर्थ नहीं हुए, उसी प्रकार प्राकृत आगमोंके प्रवचन मात्र से जैन निर्मन्थांका 'मोक्षमार्ग' भी अब निर्भय नहीं रह सकता। इस लिये तर्कप्रधान प्रकरणग्रंथोंका प्रणयन करना अत्यावश्यक है । इन्हीं निग्रंथोंमेंसे, सबसे प्रथम आचार्य उमास्वाति (मी) ने तत्त्वार्थाधिगम सूत्रकी रचना कर समग्र जैनतत्त्वों को एकत्र संग्रहीत किया। अपने जीवनमें वे इस कार्यको पूर्ण करके पिछले प्रतिभाशाली क्षपकोंके लिये ऐसी सूचना कर गये कि इन संगृहीत जैनतत्त्वोंके अर्थ प्रमाण और नयके द्वारा निश्चित करने चाहिएँ (-प्रमाण नयैरधिगमः) । ' मोक्षशास्त्र' के रचयिता महार्षिकी इस अर्थपूर्ण सूचनाके महत्वको समझ कर जिन पिछले महामति क्षपणकोंने इस दिशा में प्रयत्न करना शुरू किया और प्रमाण और नयकी व्यवस्था करनेके लिये नवीन शास्त्ररचना करनी शुरू की, सिद्धसेन दिवाकर उन्हीं सबके प्रधान अग्रणी हैं। उन्होंने ही सबसे पहले 'न्यायावतार' नामक तर्कप्रकरणकी रचना कर 'जैन प्रमाण' का पाया स्थिर किया और 'सम्मति प्रकरण ' नामक महातर्कग्रन्थका प्रणयन कर 'नयवाद' का मूल दृढ किया। सिद्धसेन दिवाकरकी कृतियोंके अवलोकनसे मालूम पडता है कि ये बड़े स्पष्टभाषी और स्वतंत्र विचार के उपासक थे। प्रकृतिसे वे बड़े तेजस्वी थे और प्रतिभासे 'श्रुतकेवली' थे। उनकी कृतियोंमें जो स्वतंत्र विचारकी झलक दिखाई दे रही है वह अन्य किसी की भी कृतिमें नहीं । साक्षात् उनके ग्रन्थोंके देखने से, तथा पिछले ग्रंथकारोंने उनके विषयमें जो उल्लेख किये हैं उनके पढ़नेसे, ज्ञात होता है, कि जैनधर्मके कितने एक परंपरागत विचारोंसे सिद्धसेनके विचार भिन्नत्व रखते थे । पूर्वकालीन तथा समकालीन अन्यान्य जैन विद्वनोंके विचारोंमें और सिद्ध सेनसूरिके विचारोंमें परस्पर बहुत कुछ उल्लेख योग्य मतभेद था । दिवा [ भाग १ करजी साक्षात् जैनसूत्रोंके - जैनागमोंके - कथनको भी अपनी तर्कबुद्धिकी कसोटीपर कसकर तदनुकूल उसका अर्थ किया करते थे। केवल पूर्वपरंपरा से चले आने अथवा पूर्वाचार्योंको स्वीकृत होनेही के कारण वे किसी सिद्धान्तको शिरोधार्य नहीं कर लेते थे । युक्तियुक्त बातहीका वे स्वीकार किया करते थे, चाहे वह पूर्वाचार्योंको सम्मत हो या न हो । जिस तरह वर्तमानमें बहुधा देखा जाता है कि कोई भी स्वतंत्र विचारक किसी भी पूर्वपरंपरा से चली आती हुई बात में कुछ 'ननु नच' करता है, या उसके प्रतिकूल कुछ अर्थ या अभिप्राय प्रदर्शित करता है, तो झट बहुतसे गतानुगतिक और लकीरके फकीर बने हुए पण्डितम्मन्य महाशय एकदम चिल्ला उठते हैं कि, 'यह बात तो शास्त्रविरुद्ध है, यह अभिप्राय तो परंपरा प्रचलित अभिप्रायसे प्रतिकूल है;' उसीतरह शायद दिवाकरजीके जमाने में भी चलता रहा होगा । उनके कितने ही उद्गारोंसे मालूम पडता है कि जब कभी वे कोई पूर्वपरंपरासे अथवा पूर्वाचार्यों के मत से भिन्नार्थक विचार प्रदर्शित करते होंगे तब बहुत से पुराणप्रिय पण्डित उनके नवीन विचारका प्रतिषेध करते हुए यही दलील देते होंगे कि - " महाराज, आपके विचार तो पूर्वाचार्योंके विचारसे विरुद्ध जाते हैं; क्या आप पूर्वपुरुषोंसे अधिक ज्ञानवान् हैं, जो उनके कथनमें शंका उपस्थित करते हैं ? क्या आपके जैसी शंका उनको नहीं करनी आती थी ? " इत्यादि । ऐसे ही 'मृतरूढगौरव ' प्रिय पण्डितोंका मुख मुद्रित करने के लिये दिवाकरजीने एक द्वात्रिंश का में बडी ही मार्मिकताके साथ अपने हृदयका जोश प्रकट करते हुए निम्न श्लोक कहा है कहते हैं। कहा जाता है कि सिद्धसेन दिवाकरने ३२-३२ - बत्तीस पद्योंका जो एक प्रकरण होता है उसे द्वात्रिंशिका पयोंवाली ऐसी ३२ द्वात्रिंशिकायें बनाई थीं। प्रसिद्ध ग्रंथ 'न्यायावतार ' भी इन्हीं द्वात्रिंशद् - द्वात्रिंशिकाओंमें से एक द्वात्रिंशिकारूप है। वर्तमान में ये सब ३२ ही द्वात्रिंशिकायें उपलब्ध नहीं होतीं। 'न्यायावतार' सहित कुल २१ द्वात्रिंशिकायें ही मिलती हैं। भावनगरकी 'जैनधर्मप्रसारक काओं और 'सम्मतिप्रकरण' को मूल रूपमें छपवा कर प्रकट सभा ' ने 'सिद्धसेन ग्रंथमाला' के नामसे इन द्वात्रिंशिकर दिया है। सिद्धसेनसूरिकी ये द्वात्रिंशिकायें बहुत ही गूढ और गभीरार्थक हैं। इनको ऊपर ऊपर से हमने कई Aho! Shrutgyanam
SR No.009877
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy