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________________ अंक २] कुमारपाल प्रतिबोध परिचय ६१ आ कृतिओ सिवाय बीजी पण तेमनी कोई कृति होय तेम अनुमान थाय छे. कारण के शतार्थ वृत्तनी वृत्तिमा कुमारपाल राजा संबंधी अर्थ करतां " यदद्वोचाम” करीने बे पद्यो टांक्यां छे जे उपलब्ध कृतिओमां मळी आवतांनथी.8 कुमारपाल प्रतिबोधनी रचना ग्रंथकारे मुख्यकरीने प्राकृतभाषामां करी छ. छेवटना प्रस्तावमा केटलीक कथाओ संस्कृतमां आपी छे. तथा थोडोक भाग अपभ्रंश भाषामां पण गुंथेलो छ. आ उपरथी लेखक प्राकृत, संस्कृत अने अपभ्रंश एम त्रणे भाषाओना पंडित हता ते स्पष्ट जणाई आवे छे. ग्रंथनी रचना बहु ज सरल अने भाषा तद्दन सादी-आडंबर विनानी छे. कर्ता जोके, जेम उपर बताववामां आव्युं छे, एक उत्तम कोटिना विद्वान अने ग्रंथकार छे. परंतु तेमनी विद्वत्तानी कोई विशिष्टता आपणने आ ग्रंथमां मळी आवती नथी. कुमारपाल प्रबंधना कर्ता जिनमंडनगाणए पोताना प्रबंधमां अनेक स्थळे, आ ग्रंथमांना ऐतिहासिक भागनां अवतरणो टांक्यां छे.' अने जयासंह सूरिए पोताना संस्कृत कुमारपालचरित्रमा आ ग्रंथनी रचना शैलीनुं आबाद अनुकरण कर्यु छे. ते उपरथी जणाई आवे छे के पाछळना ग्रंथकारो प्रस्तुत ग्रंथथी सारी पेठे अवगत होवा जाईए, कुमारपालप्रतिबोधिनी ऐतिहासिक उपयोगिता आ ग्रंथनुं महत् परिमाण अने रचना-समय तरफ दृष्टि करतां,इतिहास रसिक जिज्ञासुओने, आ प्रथमांथी कुमारपाल अने हेमचंद्राचार्यना जीवनवृत्तान्त संबंधी अज्ञात अने अन्यत्र अनुपलब्ध एवी नवी नवी बाबतो जाणवानी विशेष जिज्ञासा रहे, ए स्वाभाविक छे. अने हूं पण प्रथम एवी ज लालसाथी आ ग्रंथना संपादन-भारने वहन करवा सानंद तत्पर थयो हतो. परंतु ग्रंथर्नु सायंत अवलोकन कर्या पछी मारे उदास मने जणाव पडे छे के तेवी कोई नवीन बाबत, आ आटला मोटा ग्रंथमाथी मळी आवी नथी, एटलं ज नहीं परंतु प्रभावकचरित्रांतर्गत हेमचंद्रप्रबंध, प्रबंधचिन्तामणिगत कुमारपालप्रबंधादि जेवा, प्रस्तुत ग्रंथ करतां संक्षिप्त अने कालकृत अर्वाचीन ग्रंथोमां जेटली हकीकत, उक्त बंने व्यक्तिओना संबंधमां मळी आवे छे; ते करतां पण घणी ज अल्प हकीकत आ ग्रंथमां आलेखेली छे. आथी ऐतिहासिक दृष्टिए तो आपणने आ ग्रंथनी कोई पण प्रकारनी विशेष उपयोगिता जणाती नथी, एम जो कहीए तो ते अयुक्त नथी. अलबत प्राकृत भाषाना साहित्य-प्रकाशननी अपेक्षाए आनी उपयोगिता अवश्य स्वीकारवा लायक छे. कारण के एक तो प्राकृतसाहित्य अत्यारसुर्धामा घणा ज अल्प प्रमाणमा प्रकाशित थयं छे, अने बीजं हवे मुंबई युनिवर्सिटीए पोताना पठनक्रममां पालीभाषानी माफक प्राकृतभाषाने पण खास स्थान आपेलं होवाथी ए भाषाना साहित्यना प्रकटीकरणनी घणी ज आवश्यकता प्रतीत थई रही छे. तेवा प्रसंगे प्राकृत भाषाना आ एक महान् ग्रंथर्नु प्रकाशन ए भाषाना अभ्यासिओने अवश्य आवकार दायक थई पडशे एमां संशय नथी. *ए बे पद्यो नीचे प्रमाणे छेःचैलुक्येन्द्रेण चैत्ये कुचकलशनिकबन्धुराः सिन्धुरस्त्रीस्कन्धारूढा विधातुं जिनजननमहे सूतिकर्मप्रपञ्चम् । षट्पञ्चाशत्समीरप्रमुखनिजानिजाचारचातुर्यवर्यास्फुर्जन्माणिक्यहेमाभरणकवाचताश्चक्रिरे दिक्कुमार्यः॥ द्वात्रिंशत्रिदशाधिपा नृपगृहात चैत्ये द्विपाध्यासिता: कल्याणाभरणाभिरामवपुषः कल्याणकायुत्सवे । स्नात्रं कर्तुममर्त्यशैलशिरास स्वर्गादिवाभ्याययुस्तन्मध्ये च कुमारपालनृपतिर्भजेऽच्युतेन्द्रश्रियम् ॥ १ जुओ मुनि श्रीचतुरविजयजी संपादित कुमारपालप्रबंध-पृ. १०, १७,५८, ८०, ९०, ९४, ९५, ९५, १०६, १०७, १११ इत्यादि. Aho! Shrutgyanam
SR No.009877
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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