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________________ अंक २] अनुभव करता हुआ संघ फिर विपाशा के तट पर धहुंचा। उसे सुखपूर्वक ऊतर कर अनेक बड़े बड़े गाँव के बीच होता हुआ, और तत्तद् गाँवों के लोकों और स्वामियों को मिलता हुआ, क्रम से पातालगंगा तट ऊपर पहुंचा। उसे भी निरायास पार कर क्रम से आगे बढते हुए और पहाड़ों की चो टियों को पैरों नीचे कुचलते हुए संघ ने दूरसे सोनेके कलशवाले प्रासादोंकी पंक्तिवाला नग कोट्ट, कि जिसका दूसरा नाम सुशमपुर है, देखा । उसे देख कर संघ जनोंने तीर्थके प्रथम-दर्शनसे उत्पन्न होने वाले आनंदानुसार, दान धर्मादि सुकृत्यों द्वारा अपनी तीर्थभक्ति प्रकट की । नगरकोट्टके नीचे बाणगंगा नदी बहती है जिसे ऊतर कर संघ गाँव जानेकी तैयारी कर रहा था कि इतने में उसका आगमन सुन कर गाँवका जैनसमुदाय, सुन्दर वस्त्राभूषण पहन कर स्वागत करने के लिये सामने आया । अनेक प्रकारके वादि त्रों और जयजयारवोंके प्रचंड घोषपूर्वक महान् उत्सव के साथ, नगर में प्रवेश किया। सहर के प्रसिद्ध प्रसिद्ध मुहल्लों और बाजारोंमें घूमता हुआ संघ, साधु क्षीमसिंहके बनाये हुए शान्तिनाथ - देव के मंदिर के सिंहद्वार पर पहुंचा। 'निसीही निसीही नमो जिणाणं ' इस वाक्य को तीन वार बोलता हुआ जिनालय में जो कर, खरतरगच्छक जेसलमेरके पटवों के संघका वर्णन १०७ आचार्य श्रीजिनेश्वरसूरिकी प्रतिष्टित की हुई शान्तिजिनको प्रतिमा का दर्शन किया। तीन वार प्रदक्षिणा दे कर, नाना प्रकारके स्तुति - स्तोत्रों द्वारा अत्यंत आनन्दपूर्वक प्रभुकी पर्युपासना की । इस प्रकार संवत् १४८४ वर्षके ज्येष्ठ सुदि पंचमी. के दिन, अपनी चिरकाल की दर्शनात्कण्ठाको पूर्ण कर फरीदपुरका संघ कृतकृत्य हुआ । शान्तिजिन के दर्शन कर संघ फिर नरेन्द्र रूपचन्द्र के बनाये हुए मंदिर में गया और उस में विराजित सुवर्णमय श्रीमहावरिजिन विंगको पूर्ववत् वन्द न नमन कर, देवल के दिखाये हुए मार्ग से युगादिजिनके तीसरे मंदिर में गया। इस मंदिर में भीउसी तरह परमात्माकी उपासना --स्तवना कर निज जन्म को सफल किया । ऊपर हमने 'तीर्थयात्रांके लिये निकलनेवाले संका वर्णन ' दिया है । इस प्रकारका एक बडा भारी संघ गत शताब्दी के अंतमें, मारवाडके जे सलमेर नगरमें रहनेवाले पटवा नामसे प्रसिद्ध कुटुंबवाले ओसवालोंने निकाला था। इस संघका वर्णन, उसी कुटुंबका बनाया हुआ, जेसलमेर के पास अमरसागर नामक स्थानमें जो जैन मंदिर है उसमें एक शिला पर उसी समयका लिखा हुआ है । यह शिलालेख मारवाडी भाषा में और देवनागरी लिपिमें लिखा गया है। नीचे इस लेखकी (विज्ञप्तित्रिवोणे, प्रस्तावना, पृ० ३७ - ३९ ) इस प्रकार और भी अनेक ग्रन्थोंमें अनेक संघोंका वर्णन मिलता है । इस लेख में हमारा उद्दश सारे संघका इतिहास लिखनेका नहीं है, परंतु संघ किस तरहसे निकाले जाते हैं उसका स्वरूप बतलानेका है । इस लिये नमूने के तौर इतने वर्णन दे कर इस विषयको समाप्त किया जाता है । संघों • का क्रमवार इतिहास हम कभी भविष्य में लिखना चाहते हैं । जेसलमेर के पटवोंके संघका वर्णन । ज्यों कि त्यों नकल दी जाती है। इस लेख की एक कापी प्रवर्तक श्रीकान्तिविजयजी महाराजके शास्त्रसंग्रहमेंसे मिली है; जो उन्होंने किसी मारवाडी लहियेके पास लिखवाई है और दूसरी नकल, बडौदाके राजकीय पुस्तकालय के संस्कृत विभागके सद्गत अध्यक्ष श्रीयुत चिमनलाल डाह्याभाई दलाल एस. ए. के पास से मिली है जो उन्होंने मेरे लिये जेसलमेरके किसी यतिके पाससे लिख मंगवाई थी । Aho! Shrutgyanam
SR No.009877
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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