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________________ जैन साहित्य संशोधक १०६ हाथमें तलवार थी तो किसीके हाथमें खड्ग था । कोई धनुष्य लेकर चलता था तो कोई जब - रदस्त लठ्ठ उठाये हुआ था । इस प्रकार सबसे आगे उछलते कूदते और गर्जते हुए सिपाही चले जाते थे। उनके पीछे बडी तेजी के साथ चलने वाले ऐसे बडे बडे बैल चलते थे जिन पर सब प्रकारका मार्गोपयोगी सामान भरा हुआ था । उनके बाद संघ लोक चलते थे जो कितने एक गाडी घोडी आदि वाहनों पर बैठे हुए थे और कई एक देव गुरु-भक्ति निमित्त पैदल ही चलते थे । कितने ही धर्मी जन तो साधुओंकी समान नंगे ही पैर मुसाफरी करते थे । इस प्रकार अविच्छिन्न प्रयाण करता हुआ और रास्ते में आनेवाले गाँवों को लांघता हुआ संघ निश्चिन्दीपुर के पास के मैदानमें, सरोवर के किनारे आ कर ठहरा । संघके आनेकी खबर सारे गाँवमें फैली और मनुष्यों के झुंड के झुंड उसे देखनेके लिये आने लगे । गाँव का मालिक जो सुरत्राण (सुल्तान) करके था वह भी अपने दिवान के साथ एक ऊंचे घोडे पर चढ कर आया, और जन्मभर में कभी नहीं देखे हुए ऐसे साधुओंको देखकर उसे बडा विस्मय हुआ । उपाध्यायजीने उसे रोचक धर्मोपदेश सुनाया, जिसे सुन कर नगरके लोकोंके साथ वह वडा खुश हुआ और साधुओंकी स्तुति कर उसने सादर प्रणाम किया। बाद में संघपति सोमाका सम्मान कर अपने स्थान पर गया। संघ वहां से प्रयाण कर क्रमसे तलपाटक पहुंचा। वहां पर गुरुओंको वन्दन करने के लिये देवपालपुरका श्रावकसमुदा य आया और अपने गाँव में आनेके लिये संघको अत्याग्रह करने लगा । उन लोकों को किसी तरह समझा-बुझाकर संघने वहां से आगे प्रयाण किया और विपाशा ( व्यासा ) नदीके किनारे किनारे होता हुआ क्रमसे मध्य देशमें पहुंचा। जगह जगह ठहरता हुआ संघ इस देश को पार कर रहा था, कि इतने में एक दिन, एक तरफसे षोपदेश यशो रथके सैन्यका और दूसरी ओरसे शकन्दर के सैन्यका, "भगो, दोडो, यह फौज आई, वह फौज आई, "इस प्रकारका चारों तरफेस कोलाहल सुनाई [ भाग १ दिया । इसे सुनकर संघके हौंस ऊड गये । सब दि ङ्मूढ हो गये । यात्रीलोक दिलमें बडे घबराये और अब क्या किया जाय इसकी फिक्र में निश्चेष्टसे हो र है । किसी प्रकार हौंस संभालकर और परमात्माका ध्यान घर संघ पीछा लौटा और विपाशा के तटका आश्रय लिया | नावों में बैठ कर जल्दी से उस को पार किया और कुंगुद नाम के घाट में हो कर मध्य, जांगल, जालन्धर और काश्मीर इन चार देशोंकी सीमाके मध्य में रहे हुए हरियाणा नामके स्थान में पहुंचा। इस स्थलको निरूपद्रव जान कर वहां पर पड़ाव डाला । वहीं पर, कानुक यक्षके मंदिर के नजदीक, शुचि और धान्यप्रधान स्थान में चैत्र सुदि एकादशी के रोज सर्वोत्तम समय में, नाना प्रकार के वाद्योंके बजने पर और भाट चारणों के बिरुदावली बोलने पर, सब संघने इकट्ठा हो कर, साधु सोभा को, उसके निषेध करनेपर भी, संघाधिपतिका पद दिया । मल्लिकबाहनके सं० मागटके पौत्र और सा० देवा के पुत्र उद्धर को महाधर पद दिया गया। सा० नीवा, सा० रूपा और सा० भोजा को भी महाधर पद से अलंकृत किया गया। सैलहस्त्य का विरुद बुद्धासमोत्रीय सा० जिनदत्त को समर्पण किया गया । इस प्रकार वहां पर पछीदान करनेके साथ उन उन मनुष्योंने संघ की, भोजन-वस्त्र आभूषणादि विविध वस्तुओं द्वारा भक्ति और पूजा कर याचक लोकों को भी खूब दान दिया । संघके इस कार्यको देख. कर मानों खुश हुआ हुआ और उस के गुणों का गान करनेके लिये ही मानों गर्जना करता हुआ दूसरे दिन खूब जोर से मेघ वर्षने लगा । बेर बेर जितने बडे बडे ओले बादल में से गिरने लगे और झाडों तथा झंपडीओं को उखाड कर फेंक देनेवाला प्रचण्ड पवन चलने लगा। इस जलवृष्टिके कारण संघ को वहां पर पाँच दिन तक पड़ाव रखना पडा । ६ वें दिन सवेरे ही वहां से कूच की। सपादलक्षपर्वत की तंग घाटियों को लांघता हुआ, सघन झाडियों को पार करता हुआ, नामा प्रकार के पविताय प्रदेशों को आश्चर्य की दृष्टि से देखता हुआ और पहाडी मनुष्यों के आचार-विचारोंका Aho ! Shrutgyanam . •
SR No.009877
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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