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________________ [ भाग, जैन साहित्य संशोधक तीर्थयात्राके लिये निकलनेवाले संघोंका वर्णन | वपुः पवित्र कुरु तीर्थयात्रया चित्तं पवित्रीकुरु धर्मवाञ्छया । वित्तं पवित्रीकुरु पात्रदा नतः कलं पवित्रीकुरु सच्चरित्रैः ।। ---उपदेशतरंगिणी। जैन धर्मके औपदेशिक ग्रन्थसमूहमें, जैनगृहस्थों और स्पर्शन करनेसे भावुक मनुष्यके भद्र हृदयमें (श्रावकों) के लिये जिन जिन धर्मकृत्योंका वि. भव्यता प्रकट होती है और मनकी मलिनता अन्त. धान किया गया है उनमें तीर्थयात्रा करने का भी रित होती है यह मानवस्वभावसिद्ध बात है। केवल एक विधान है। मुख्य कर जिन स्थानोंमें तीर्थंकर प्रकृतिकी सुन्दरताको, स्थल की विशुद्धताको और आदि पूज्य माने जाने वाले जैनधर्मके महापुरुषोंका वातावरणको निःशब्दताको देख कर ही संस्कारी जन्म, दीक्षा, केवल या निर्वाण आदि पवित्र कार्य- हृदयवाले मनुष्यके मनमें सात्त्विकभाव प्रकट होने जिसे जैन संप्रदायमें कल्याणक' कहते हैं - हुआ हो लाते हैं। तो फिर यदि उस स्थानकेसाथ किसी स्वाउन्हें तीर्थस्थान कहते है । परन्तु किसी अन्य वि. मिमत लोकोत्तर महापुरुषकी जीवनघटनाका कोई शिष्ट घटनाके कारण या स्थलविशेषकी पवित्र- स्मृतिसंबन्ध जुड़ा हुआ होतब तो कहना ही क्या। ताके कारण और स्थान भी ऐसे तीर्थस्थान माने जो शांति ओर जो सात्त्विकता मनुष्योंको अन्य जाते हैं । समेतशिखर, राजगृह, पावापुरी, खण्डः उपाधिनस्त स्थानों में सेंकडों लेखोंके वाचनेसे गिरि आदि स्थल पूर्वमें: तक्षशिला, कांगडा, अहि. आर सैकडों ही व्याख्यानोंके सुननेसे प्राप्त नहीं च्छत्र, हस्तिनापुर आदि उत्तरमें; शत्रुजय, गिर- हो सकती, वह ऐसे शुद्ध, पवित्र और पूज्य स्था. नार, आबू, तारंगा आदि पश्चिममें; और श्रीपर्वत, नमें एक दिन जाकर रहनेसे प्राप्त हो सकती है; श्रवणबेलगोला, मुडबद्री, कुलपाक आदि दक्षिणमें ऐसा अनेक महापुरुषोंका अनुभव है । श्रमण भगजैनियोंके प्रसिद्ध तीर्थस्थान है। तीर्थस्थानोंके वान् श्रीमहावीर और गौतम बुद्ध जो वर्षांतक मानने पूजनेकी यह प्रथा केवल जैनधर्म ही में निर्जन बनोंमें घूमते रहे उसका कारण केवल यही प्रचलित है यह बात नहीं है। संसारके प्रायः सभी शांतिलाभ करना था, और इसी प्रवृत्तिद्वारा उन्होंप्राचीन और प्रसिद्ध धर्मोंमें ऐसे तीर्थस्थान माने ने अपनी मुक्ति प्राप्त की थी। संसारके महापुरुषों और पूजे जाते हैं । ब्राह्मणोंमें हरिद्वार, सोमनाथ, के अनुभूत इस सिद्धान्तको लक्ष्यमें लेकर धर्मप्रव. रामेश्वर, जगन्नाथ इत्यादि ; बौद्धोंमें कपिलवस्तु, तिकोने तीर्थयात्राकी प्रथा प्रचलित की है और मृगदाव, बोधिगया, कुशीनार इत्यादि क्रिश्चियनों में उसके अनुसार अति प्राचीन कालसे संसारके जेरुसलेम ; और मुसलमानोंमें मका मदीना आदि उपर्युक्त सभी धर्मोंके आस्तिक अनुयायी अपने स्थान सेकडों ही वर्षांसे तीर्थस्थानके रूपमे जग- अपने तीर्थ स्थानों में अनेक प्रकारके कष्ट उठाकर द्विख्यात हैं। क्या मूर्तिपूजा माननेवाले और क्या भी, अधिक नहीं तो केवल एकवार, दर्शन मात्र नहीं माननेवाले-क्या ईश्वरवादी और क्या अनीश्वरवादी इस विषयमें सभी एकमत रखते हुए करने के लिये ही जाते रहे हैं, अथवा जानेकी दिखाई देते हैं। अभिलापा रखते रहे हैं । जैनधर्मोपदेशकोंने महापुरुषांके चरणस्पशसे पवित्रित भूमिका दर्शन भी अपने तीर्थोके दर्शन स्पर्शन करनेका उपदेश Aho! Shrutgyanam
SR No.009877
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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