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________________ जैन साहित्य संशोधक [भाग १ शास्त्रीने भी उनकी इस बातको पास कर दिया है- हैं। और इसलिये प्रायः उन सबकी जाँच अनेक मार्गों अर्थात, परकपर अपने द्वारा संशोधन किये जा- और अनेक पहलओंसे होनी चाहिये । हरपक नेकी मुहर लगाकर इस बातकी रजिस्टरी कर दी बातकी असलियतको खोज निकालनेके लिये गहरे है कि उक्त वाक्य गंधहस्तिमहाभाष्यका ही वाक्य अनुसंधानकी जरूरत है । तभी कुछ यथार्थ निर्णय है । परन्तु वास्तवमें ऐसा नहीं है। यह वाक्य हो सकता है। राजवार्तिक भाष्यका वाक्य है। राजवार्तिक १५-ऊपर श्रुतावतारके आधारपर यह प्रकट *अवग्रहहावायधारणा' इस सूत्रपर जो १०वा किया गया है कि समन्तभद्रन 'कमेप्राभूत' सि वार्तिक दिया है उसीके भाव्यका यह एक वाक्य द्धान्तपर ४८ हजार श्लोक परिमाण एक सुन्दर है । इस वाक्यसे पहले जो वाक्य, 'यद्राजवा- संस्कृत टीका लिखी थी । यह टीका 'चूडामणि' र्तिकं 'शब्दोंके साथ. न्यायदीपिकाकी ऊपरकी नामकी एक कनडी टीकाके बाद, प्रायः उसे देखपंक्तियों में उद्धृत पाया जाता है वह उक्त सूत्रका कर लिखी गई है। चूडामणि की श्लोकसंख्याका ९ वाँ वार्तिक है । दूसरे शब्दों में यों समझना चा- परिमाण ८१ हजार दिया है और वह उस कर्महिये कि ग्रन्थकर्ताने पहले राजवार्तिक भाष्यका प्राभृत तथा साथ ही,कषायप्राभत नामके दोनों एक वार्तिक और फिर एक वार्तिकका भाष्यांश सिद्धान्तों पर लिखी गई थी। भट्टाकलंकदेवने, उद्धृत किया है, जिसको हमारे दोनों पंडित अपने कर्नाटक शब्दानुशासनमें इस चूडामाणिमहाशयोंने नहीं समझा और न समझनेकी कोशिश टीकाको 'तत्त्वार्थ महाशास्त्रकी व्याख्या ' (तत्त्वाकी । उनके सामने मूल ग्रन्थमै 'गन्धहस्ति महा- महाशास्त्रव्याख्यानस्य* ' चूडामण्यभिधानस्य भाष्य ' ऐसा कोई नाम नहीं था और यह हम महाशास्त्रस्य... उपलभ्यमानत्वात् ' ।) लिखा है, बखूबी जानते है कि उन्होंने गन्धहस्ति महाभाष्य. जिसका आशय यह होता है कि कर्मप्राभूतादि का कभी दर्शन तक नहीं किया, जो उस परसे ग्रन्थ भी ' तत्त्वार्थशास्त्र' कहलाते हैं और इस लिये जाँच करके ही ऐसे अर्थका किया जाना किसी कर्मप्राभृतपर लिखी हुई समन्तभद्रकी उक्ते टीकाप्रकारसे संभव समझ लिया जाता, तो भी उन्होंने भी तत्त्वार्थमहाशास्त्रकी टीका कहलाती होगी। 'भाष्य' का अर्थ 'गन्धहस्ति महाभाष्य' करके चूँकि उमास्वातिका तत्त्वार्थसूत्र भी 'तत्त्वार्थशास्त्र' एक विद्वानके वाक्यको दूसरे विद्वानका बतला अथवा तत्त्वार्थमहाशास्त्र' कहलाता है, इसलिये दिया । यह प्रचलित प्रवादकी धुन नहीं तो और सम्भव है कि इस नामसाम्यकी वजहसे 'कर्मक्या है ? इसी तरह एक दूसरी जगह भी 'तद्भाष्यं' प्राभृत' के टीकाकार श्रीसमन्तभद्रस्वामी किसी पदका अर्थ-"ऐसा ही गन्धहास्त महाभाष्यमें समय उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रके टीकाकार समझ भी कहा है-' किया गया है। इस उदाहरणसे लिये गये हों और इसी गलतीके कारण पीछेसे पाठक स्वयं समझ सकते हैं कि प्रचलित प्रबादकी अनेक प्रकारकी कल्पनाएँ उत्पन्न होकर उनका धुनमें कितना अर्थका अनर्थ हो जाया करता है वर्तमानरूप बनगया हो । यह भी सम्भव है, कि और उसके द्वारा उत्तरोत्तर संसारमें कितना भ्रम प्रबल और प्रखर तार्किक विद्वान होनेके कारण तथा मिथ्याभाव फैल जाना संभव है। शास्त्रोंमें 'गन्धहस्ति' यह समन्तभद्रका उपनाम अथवा प्रचलित प्रवादोंसे अभिभूत ऐसे ही कुछ महाश- बिरुद रहा हो और सके कारण ही उनकी उक्त योंकी कृपासे अथवा अनेक दन्तकथाओंके किसी सिद्धांतटीकाका नाम गन्धहस्तिमहाभाष्य प्रसिद्ध न किसी रूपमें लिपिबद्ध हो जानेके कारण ही बहु------- * यहाँ मन्थका परिमाण ९६ हजार लोक दिया है जि. तसे ऐतिहासिक तत्त्व आजकल चक्करमे पड़े हुए सकी बाबत राइस साहबने, अपनी 'इंस्क्रिपन्स एट श्रवण ___ * देखो राजवार्तिक, सनातन ग्रन्थमाला कलकत्तका बेलगोल ' नमक पुस्तकों, लिखा है कि इसमें १२ छग हुआ। हमार श्लोक अन्यके संक्षिक्षसार अथवा सूचीके शामिल हैं Aho! Shrutgyanam
SR No.009877
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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