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________________ ८२ जैन साहित्य संशोध... [भाग १ दन्त आचार्यका और शेष भूतबलिका बनाया हुआ विदुष्विणीषु संसन्स यस्य नामापि कीर्तितम् । है। वीरनिर्वाणसंवत् ६८३ के बाद पूर्वोक्त सब आचार्य निखर्वयति तदर्व यशाभद्रः स पातु नः ॥ ४६ क्रमसे हुए, या अक्रमसे; और उनके बीच में कितना इनके विषयमें और कोई उल्लेख नहीं मिला और कितना समय लगा, यह जानने का कोई भी साधन न यही मालम हआ कि इनके कौन नहीं है । यदि हम इनके बीचका समय २५० वर्ष कौन ग्रन्थ हैं । आदिपुराणके उक्त श्लोकसे तो वे मान ले तो भूतबलिका समय वीरनिर्वाण संवत् ९३३ तार्किक ही जान पडते हैं । (शक संवत् ३२८ वि० सं० ४६३ ) के लगभग प्रभाबन्द्र | आदिपुराणमें न्याय कुमुदचन्द्रो. निश्चित होता है । और इस हिसाबसे वे पूज्यपाद दयके कर्ता जिन प्रभाचन्द्रका स्मरण किया है, स्वामसि कुछ ही पहले हुए है, ऐसा अनुमान उनसे ये पृथक और पहलेके मालम होते है। होता है। क्यों कि चन्द्रोदयके कर्ता अकलङ्कभट्टके समय में २ श्रीदत्त । विक्रमकी ९ वी शताध्दिके सुप्रसिद्ध हुए हैं, इसलिए उनका जिक्र जैनेन्द्र में नहीं हो लेखक विद्यानन्दन अपने तत्वार्थश्लोकवार्तिकमें सकता। मालूम नहीं, ये प्रभाचन्द्र किस ग्रन्थके श्रीदत्तके 'जल्पनिर्णय' नामक प्रन्थका उलेश्व कता है और कल हए है। किया है: ५ सिद्धसेन । ये सिद्धसेन दिवाकरके नामसे द्विप्रकारं जगौ जल्पं तत्त्व-प्रातिभगोचरम् । प्रसिद्ध है । ये बडे भारी तार्किक हुए हैं। स्वर्गीय निषष्टवादिना जता श्रीदत्तो जल्पनिर्णये।। डा० सतीशचन्द्र विद्याभूषणका खयाल था कि विइससे मालूम होता है कि ये १३ वादिया क्रमकी सभाके 'क्षपणक ' नामक रत्न यही थे। जीतनेवाले बडे भारी तार्किक थे । आदिपुराणक आदिपुराणमें इनका कवि, और प्रवादिगजकेसरी कर्ता जिनसेनसरिने भी इनका स्मरण किया है कहकर और हरिवंशपुराणमें सूक्तियोंका को क और इन्हें यादिगजाका प्रभेदन करनेके लिए सिंह हकर स्मरण किया है। न्यायावतार, सम्मतितर्क, बतलाया है:-- कल्याणमन्दिरस्तोत्र और २० द्वात्रिंशिकायें (स्तु श्रीदत्ताय नमस्तस्मै तपः श्रीदीप्तमूर्तये । तियां ) इनकी उपलब्ध हैं । यदि विक्रमका समय कण्ठीरवायितं येन प्रवादीभप्रभेदने ।। ४५ ईसाकी छठी शताब्दी माना जाय-जैसा कि प्रोमो क्षमूलर आदिका मत हैं-तो सिद्धसेन इसी समय वीरनिर्वाण संवत ६८३ के बाद जो आरातीय सवत ६८३ क बाद जा ४ आराताय में हुए हैं और लगभग यही समय जैनेन्द्र के बनमुनि हुए हैं, उनमें भी एक का नाम श्रीदत्त है। नका है। उनका समय वीरनिर्वाण सं० ७१० ( शक सं० १ ६ समन्तभद्र । दिगम्बर सम्प्रदायके ये बहुत९५-वि० सं० २३० ) के लगभग होता है । यह भी संभव है कि आरातीय श्रीदत्त दूसरे हो और जल्प ही प्रसिद्ध आचार्य हए हैं । बीसों दिगम्बर ग्रन्थनिर्णयके कर्ता दूसरे । तथा इन्हीं दूसरेका उल्लेख कारोंने इनका उल्लेख किया है । ये बड़े भारी ता र्किक और कवि थे। इनका गृहस्थावस्थाका नाम जैनेन्द्रमें किया गया हो। वर्म था। ये फणिमण्डल (?) के उरगपुर-नरेशके ३ यशोभद्र । आदिपुराणमें संभवतः इन्हीं यशोभद्रका स्मरण करते हुए कहा है _*सिद्धसग ईश्वकी ६ ठो शताब्दीसे बहुत पहले हो गये है। क्या कि विक्रमकी ५ वीं शताब्दांमें हो जाने वाले १ त्रैलोक्यसारके कर्ता नेमिचन्द्र'ने और हरिवंश आचार्य लवादीने सिद्धसेनके सम्मातितर्क ऊपर टीका पुराणके कर्तीने वार निर्वाणस ६०५ वर्ष बाद शककाल लिखी थी। हमारे विचारसे सिद्धसेन विक्रमका प्रथम शता. माना है। उन्हीकी गणनाके अनुसार हमने यहाँ शक संवत् ब्दिमें हुए हैं। दिया है। संपादक-जै. सा. सं. Aho I Shrutgyanam
SR No.009877
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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