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________________ अंक २] जैनेन्द्र व्याकरण और आचार्य देवनन्दी गया है । यह पद्धति प्राचीन गुप्त और कदम्बवंशी जैनेन्द्रोक्त अन्य आचार्य । । राजाओंके समय तक प्रचलित थी, इसके पाणिनि आदि वैयाकरणोंने जिस तरह अपनेसे कई प्रमाण पाये गये हैं। प्राचीन गुप्तोंके शक सं. पहलेके वैयाकरणों के नामोंका उल्लेख किया है उसी वत् ३९७ से १५० [वि० सं० ४५० से ५८५] तक तरह जैनेन्द्रसूत्रोंमें भी नीचे लिखे आचायाँका तक के पाँच ताम्रपत्र पाये गये हैं। उनमे चत्रादि उलेख मिलता है:-- संवत्सरोंका उपयोग किया गया है और इन्हीं गुप्तोंके -राद् भूतबलेः। ३-४-८३ । समकालीन कदम्बवंशी राजामृगेशवर्माके ताम्रपत्र में २-गुणे श्रीदत्तस्यास्त्रियाम।१-४-३४ । भी पौष संवत्सरका उल्लेख है । इससे मालूम होता ३-रुवृषिमृजां यशोभद्रस्य । २-१-९९ । है कि इस बृहस्पति संवत्सरका सबसे पहले उल्ले ४-रात्रेः रुतिप्रभाचन्द्रस्य । ४-३-१८. । ख करनेवाले जैनेन्द्रव्याकरणके कर्त्ता है और इस ५-वेत्तेः सिद्धसेनस्य । ५-१-७॥ लिए जैनेन्द्रकी रचना का समय ईस्वी सन्की ६-चतुष्टय समन्तभद्रस्य । ७-४-१४०। पाँचवी शताब्दिके उत्तरार्ध (विक्रमकी छठी शता जहां तक हम जानते हैं, उक्त छहों आचार्य ब्दीका पूर्वार्ध ) के लगभग होना चाहिए। यह तो ग्रन्थका तो हो गये हैं, परन्तु उन्होंने कोई व्यापहले ही बताया जा चुका है कि जैनेन्द्रकी रचना करण ग्रन्थ भी बनाये होंगे, ऐसा विश्वास नहीं ईश्वरकृष्णके पहले अर्थात् वि० सं० ५०७ के होता । जान पडता है, पूर्वोक्त आचार्याक ग्रन्थों में पहले नहीं हो सकती, क्यों कि उसमें वार्षगण्यका जो जदा जदा प्रकारके शब्दप्रयोग पाये जाते होंगे उल्लेख है। उन्हीं को व्याकरणसिद्ध करनेके लिए ये सब पाठक महाशयने इन प्रमाणोंमें 'हस्तादेयेनु- सूत्र रचे गये हैं । इन आचार्यों से जिन जिनके द्यस्तये चेः', 'शरदच्छुनकदाग्निशमकृष्णरणात् ग्रन्थ उपलब्ध हैं, उनके शब्दप्रयोगोंकी बारीकी भृगुवत्साग्रायणवृषगणब्राह्मणवसिष्ठे' और 'गुरू- के साथ जांच करनेसे इस बातका निर्णय हो दयाद् भायुक्तब्दे ' सूत्र दिये हैं, परन्तु ये तीनों ही सकता है । आशा है कि जैन समाजके पण्डित जैनेन्द्र के असली सूत्रपाठमें इन रूपोमें नहीं हैं, गण इस विषयमें परिश्रम करनेकी कृपा करेंगे । अतएव इनसे जैनेन्द्रका समय किसी तरह भी नि- १ भूतबलि । इनका परिचय इन्द्रनन्दिकृत श्चित नहीं हो सकता है । श्रुतावतार कथामें दिया गया है । भगवान् महाहाँ, यदि जैनेन्द्रकी कोई स्वयं देवनन्दिकृत वृत्ति वीरके निर्वाणके ६८३ वर्ष बाद तक अंगज्ञानकी उपलब्ध हो जाय, जिसके कि होनेका हमने अनु- प्रवृत्ति रही। इसके बाद विनयधर, श्रीदत्त, शिवमान किया है. और उसमें इन सूत्रोंके विषयको दत्त, और अहहत्त नामके चार आरातीय मुनि हुए प्रतिपादन करनेवाले वार्तिक आदि मिल जायं-मि- जिन्हें अंग और पूर्वके अंशोंका शान था । इनके ल जानेकी संभावना भी बहुत है तो अवश्य बाद अर्हद्वलि और माघनन्दि आचार्य हुए । इन्हें ही पाठक महाशयके ये प्रमाण बहुत ही उपयोगी उन अंशोंके भी कुछ अंश ज्ञान रहा। इनके बाद सिद्ध होंगे। धरसेन आचार्य हुए । इन्होंने भूतबलि और पुष्पदपाठक महाशयके इन प्रमाणोंके ठीक न होने न्त नामक दो मुनियोंको विधिपूर्वक अध्ययन कराया पर भी दर्शनसारके और मर्कराके ताम्रपत्रके प्रमा- और इन दोनोने महाकर्मप्रकृतिप्राभृत या षटलण्ड ण। यह बात लगभग निश्चित ही है कि नामक शास्त्रकी रचना की । यह ग्रन्थे ३६ हजार जैनेन्द्र विक्रमकी छठी शताब्दीके प्रारंभ की श्लोक प्रमाण है। इसके प्रारंभका कुछ भाग पुष्प रचना है १ संभवतः यह ग्रन्थ मूडबिद्री ( मंगलोर) के जैनभण्डारम मौजद है। Aho! Shrutgyanam
SR No.009877
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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