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________________ अंक १] संपादकीय विचार. ना हाथमा फरता जोवामां आवे छे. जे ग्रंथनी एक छपाता पुस्तको पण जोवा-वांचवा माटे मळी नकल उतरावतां सेंकडों रूपिआ खर्च करवा पडता शकतां नथी. आज सुधीमां सेंकडों ग्रंथो छपाई हता ते ग्रंथ आजे मफत सुधां मळी शके छे. ए प्रकट थई चुक्या छे, छतां, साधुओनी पेटीओ सिवाय बधो प्रताप उत्साही पुस्तक-प्रकाशको अने तेमने बीजे ठेकाणे तेनां दर्शन थवां दुर्लभ छे. आ कारणसहायता मापता-अपावता मुनिजनोनो छे. थी जैनेतर सेंकडों विद्वानोने तो पूरी ए पण खबर * परंतु, हालमां जे पद्धतिए आपणामां आ नथी के कोई जैन संस्था पण हिन्दुस्थानमा जैन साहित्य प्रकाशन कार्य चाल छे ते पद्धति-जो के पुस्तको छपाववाचें काम करे छ के केम ! जे साधुए. पद्धति पण मूळ ग्रंथोने सर्वथा नष्ट थवामांथी ओने पुस्तकनुं नाम सुधां पण बराबर वांचतां न बचावी राखवा जेटली उपकारक तो छ ज, परंत- आवडतु होय तेमनी पासे पण, सीसमना कबाटोमां समयनी आवश्यकतानी अपेक्षाए बह ज अल्प फल- अने रेशमना रुमालामा बाधी मुकेली दरक पुस्तकप्रदायक छे. वर्तमानमां एक तो ग्रन्थनिरीक्षणनी नी एक-बे नकलो अवश्य मळी आवशे, परंतु जै. अनेक पद्धतिओ बहार आवती जाय छ; बीज नोनी राजधानी जेवा गणता शहर अमदाबादमां वलोकोनुं साधारण ज्ञान विस्तत थतं जाय छे. अने सता प्रो. श्री भानंदशंकर के साक्षर श्री केशवलाल तेथी तेमनामां आगळ करतां वधारे विचारपूर्वक ग्रंथ ध्रुव जेवाने, तेम ज, जैन पुस्तकप्रकाशनना कार्य माटे जोवानी जिज्ञासा वधती जाय छ; अने त्री जन- पाटनगर मनाता भावनगर शहरमा रहेता प्रो.भीड़े जेवा समाजनो मोटो भाग, जिज्ञासा धरावधा छतां, जना विद्वानोने जोवा पुरतुं पण पुस्तक मळवू दुर्लभ थई रहे अन्योने परिश्रमपूर्वक साद्यंत वांची-समजी, अव्यव- छे. आवी स्थितिमा जैन साहित्यनो शी रीते लोहाये भाषामा लखाएला अस्पष्ट विचारोने पोताना कोमा प्रसार थाय अने शी रीते विद्वानो तेमां रस मगजमा ठसाववा जेटलं कष्ट उठाववा राजी नथी, लेता थई शके ? ते सहज समजी शकाय तेम छे. तेथी हालनी पद्धतिए प्रकट थ] आपणुं साहित्य यूरोपनी लिपिमां छपाएला अने सोनाना मुल्ये लोकदृष्टिए तो अप्रकट जेवू ज छे. आजनी पद्धति- वेचाता बौद्ध धर्मना पिटक ग्रंथो हिंदुस्ताननी लगनो उपयोग ५० वर्ष पहेला हतो. ते समये ज भग दरेक कालेजनी लाईब्रेरीमा विद्यमान छे, त्यारे आवी पद्धतिए छपाएला ग्रंथो लोकोना मनमां फक्त कागळनी किंमते वेचाता के मफत व्हेंचता आनंद उत्पन्न करी शकता हता. हवे तेम करी शके जैन आगमो मुंबईनी युनिवर्सिटीनी लाईब्रेरी सुधामां तेवी परिस्थिति नथी. आजे हं, अहीं ग्रंथ प्रका- पण उपलब्ध नथी! शननी पद्धति उपर विशेष विवेचन न करतां, जे मंबई यनिवर्सिटीए चाल वर्षथी, जैनसाहित्यनी पद्धतिए ग्रंथो वर्तमानमा छपाय छे तेनो पण लोको. मळ अने पूज्यभाषा अर्धमागधीने पोताना पठनने पूरो लाभ मळतो नथी, ते संबन्धमां बे शब्दो क्रममा दाखल करी छे. ए पठन-क्रममा जे पुस्तको जणाववा इच्छु छु. नियत करवामां आव्यां छे ( ए ग्रंथो खास करीने जे व्यक्तिओना प्रयत्ने आ पुस्तक-प्रकाशन मारी सूचनानुसार ज नोंधवामां आव्यां छे अने तेनां. काये चाली रडुं छे, तेमना उत्साह, परिश्रम अने नामो नीचेनी नोटमा आप्या छे ) तेनी नकलो पण आशय उत्तम होवा छतां विचारसंकुचिततानो एक विद्यार्थीओने मळी शकती नथी. डॉ. गुणे के, जेमणे मोटो दोष तेमनामा प्रधान पणुं भोगवी रj छ ज अर्धमागधीना साहित्यने पोताना पठनक्रममा अने तेथी खरा जिज्ञासुओने, ए निर्जीव पद्धात एदाखल करवा माटे, युनिवर्सिटीनी सनेटमा मूळ Aho! Shrutgyanam
SR No.009877
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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