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________________ जैन साहित्य संशोधक. [भाग १ १२ हजारनी ग्रांटमाथी ३ एटले ३ हजार रुपिआ टरीना नामे रखाव्यो छे. परंतु खेद तो ए छे के, सीधा जैनसाहित्यना संशोधन-प्रकाशन अर्थे ज अहींथी जे पत्रो विगेरे ते सेक्रेटरीना नामे मोकलवामां खर्चावा जोईए. परंतु हजी सुधी काई पण रकम ते आवे छे तेनो सविस्तर जवाब मळवो तो बाजुए काममाटे ए संस्थाए खर्चवा काढी होय तेम जणातुं रह्यो परंतु पत्रनी पोंच सुधा पण मळती नथी. पाणिनथी. ए संबंधमां कोई पूछपरछ करवामां आवे छे आभाईना हाथमां अनेक वखते साम्राज्य स्थापतो सीधो एटलो ज जवाब मळे छ के, तमे तमारी वाना साधनो आवेलां छतां एक गामडं पण कबूलात हजी पूरी पाळी शक्या नथी, तेथी अमे ए तेमना कबजामां रही शक्युः नथी तेनु कारण संबंधमां काई स्पष्ट जबाप आपी शकता नथी ( जो आवी अव्यवस्था ज छे. माटे, हवे दरक कार्य के आपणे अत्यारसुधीमां लगभग ३०००० चोकस लखाण अने नियमपुरस्सर करतां सीखवानी रुपिआ तो एमने पहोंचाडी पण चुक्या छी ए) मारी आवश्यकता छे. तेम थशे तो ज आपणे आपेली मही प्रत्यक्ष हयाती होवा छता, अने ए बधा कार्य- उदारतानो आपणने कोई पण प्रकारनो जवाब मळी वाहको साथे मारी अंगत मैत्री होवा छतां, आपणा शकशे. नहीं तो सवाल करवानो अधिकार मण आळसने लीधे, आवी परिस्थिति नजरे पडे थे, तो नहीं मळे. बाकी, अहींना ए सज्जनो कार्य करवीमां पछी पाछळथी, लांबा समये आपणी आशा केटले बहु ज उत्साही अने निःस्वार्थ वृत्तिवाळा छे. आपणी अंशे सफळ थई शकशे, ते सहज समजी शकाय जन्मभूमिनुं गौरव केम वधे. एवी भावनाने आदर्श तेवी बाबत छे, राखी प्रवृत्ति करनारा छे. सर्वस्वनो भोग आपीने . . हुं आ कार्यमा फेटलेक अंशे निमित्तभूत थयेलो पण अंगीकृत करेला कार्यने पार उतारनास छे. होवाथी अने अंतरंग बधी व्यवस्था करवानो विश्वास विद्वत्ता साथे जिज्ञासु भाव धरावनारा छे अने जाति मारा उपर ज बधा भाईओए राखेलो होवाथी, आ अभिमान जाळवी राखवानी इच्छा राखतां छता सम्बन्धी मारा स्पष्ट विचारो समाज आगळ रजु बधानी साथे बन्धुभाव देखाडवानी वृत्ति बतावनारा करवानी मारी खास फरज छे, अने तेथी आटलो छे. तेथी, व्यवस्थापूर्वक अने निरीक्षणपुरस्सर जो भंगत खुलासो करवो में अहीं उचित धार्यों छे. आपणे आपणु वचन शीघ्र पाळीशुं तो आपणा छेवटे, हवे हुं एटलं ज निवेदन करूंछ के जे जे साहित्य माटे, आ संस्था द्वारा केटलुंकः उपयोगी सद्गृहस्थोए आ कार्यमां रकम भरी होय, ते तुरत कार्य, कालांतरे पण थई शकशे एवी आशा छे. तथास्तु. आपी दई अने बाकी जे थोडी घणी रकम खूटती होय ते मंडावी लईने, जेम चने तेम जल्दीथी आ संस्थाने पहोंचती करवी जाईए, के जेथी आपणा लाभमां जैन साहित्य प्रकाशन कार्य. विना कारणे नुकसान न थाय. बीजूं ए पण एक निवेदन छे के संस्था साथे जे काई व्यवहार राखवामां ए बहु खुशी थवा जेवू छे के, छेला केटलांक आवे ते बधो व्यवस्थापूर्वक अने नियमसर रहेवो वर्षोथी आपणा समाजमा प्राचीन पुस्तकोना प्रकाजाईए. ए कार्य, कोई एक व्यक्ति साथे सम्बद्ध नथी शनन कार्य ठीक झडपथी चाली रयुं छे. आज परंतु समाज साथे सम्बद्ध छे, अने तेथी ज में शरु- सुधीमां सेंकडों ग्रंथो छपाई बहार पडी गया छे - आतथी लईने आज सुधीनो बधो व्यवहार मारा नाम अने पडता ज जाय छे. जे ग्रंथोना दर्शन पण दुर्लभ न राखतां, जैन श्वेताम्बर कोन्फरन्सना जनरल सेक्रे. मनाता हतां तेवा ग्रन्थो आजे दरेक - साधु-श्रावक Aho! Shrutgyanam
SR No.009877
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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