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________________ अंक 1 अ. हमन जैकोबीनी कल्पसूत्रनी प्रस्तावना. सरखो जोवामां आवतो नथी; तथापि, ते बहु भिन्न जिनप्रभमुनि छे. तेमणे ए टीका अयोध्यामां संवत् पण पडतो नथी. अने तेथी करीने आ आवृत्तिमांनुं १३६४ ना आश्विन सुदी ८ अर्थात् सने १३०७ कोई पण सूत्र, हस्तलिखित प्रतिओमां सरळतापूर्वक मां पूरी करी हती. एनी ग्रंथ संख्या ३०४० छे. खोळी शकाय तेम छे. थेरावलीनी तेर सूत्रोमां ए टीकानी अंदर तेमणे पर्युषणाकल्पनियुक्तिनी करेली वहेंचणी मारी पोतानी छे. कारण के, कोई पग टीका लखी छे, आ पर्युषणाकलानियुक्तिनी पण प्रतिमां आवी वहेंचणी करेली जोवामां छासठ प्राकृत गाथाओ छे, अने ते पर्युषणा उपर आवती नथी. एक निबंध रूपे छे. आ नियुक्तिनी टीका तेना ___ कल्पसूत्र उपर सौथी प्राचीन टीका जो के में कर्ताना कहेवा मुजब निशीथचर्णिमांथी संगृहीत जोई नथी, पण ते चूर्णि होय तेम लागे छे. ते करवामां आवी छे, अने थोडा टुंका संस्कृत वाक्यो बीजी बधी चर्णिओनी माफक प्राकृतमांज लखाएली सिवाय ते प्राकृतमां ज लखाएली छे. आ आश्चहशे. कारण के टीकाओमां कोई कोई प्रसंगे तेनां र्यकारक बाबत आपणने उदाहरण आपी समजावे अवतरणो लीघेलां जोवामां आवे छे. तेना कर्तानुं छे के जैन-ग्रंथकारो पोताना पूर्वजोनी कृतिओमा नाम मळतुं नथी, पण ते हमेशां चूर्णिकारना नामे केटलो बधो स्वरचित उमेरो करता हता. जो पर्युषमोळखाय छे. बाकीनी बधी अर्वाचीन टीकाओ णानियुक्ति उपर तेना पहेलानी संकृत टीका होत सीधी अगर आडकतरी रीते तेना उपरज रचाएली तो जिनप्रभमुनिए जरूर तेनी नकल करी होत. परंतु छे. अने प्रायः ते तेना संस्कृत भाषांतर रूपे ज पोताने अन्य साधनोना अभावे आत्मनिर्भर थवानुं छे. आम मानवानुं कारण ए छे के ए होवाथी तेमणे निशीथचूर्णिमांथी अवतरणो लीधां. टीकाओमा मूळना जे अर्थो आपेला छे ते सघळी परंतु ते अवतरणोनु संस्कृत भाषान्तर सुद्धा करवानी टीकाओमां लगभग एकज सरखा, शब्दे शब्द, मळ- तेमणे तस्दी लीधी नथी. आपणने मानवाने कारण ता आवे छे. आ बाबत सर्व टीकाओनुं मूळ एकज मळे छे के जिनप्रभमुनिना समयमां कल्पसूत्र उपर मानी लईए तोज समजावी शकाय तेम छे. बीजं कोई एक संस्कृत टीका विद्यमान हती. कारण के ए छे के सर्व टीकाओ चर्णिने मुख्य प्रमाण माने तेओ पोतानी टीका संकृतमां लखे छे; परंतु चूर्णिनो छे. तेथी आपणे पण ते कृतिने स्वाभाविकरीते ते सारांश आपता नथी. आ टीकानी मारी प्रति के सर्वनी, पायाभूत-(मूळभूत) मानवी जोईए. घणाक जेने माटे हुं डॉ. बुल्हरनी उदारतानो ऋणी छु, आधुनिक टीकाकारोए पोतानी टीकाओमां उत्तरा- ते संवत् १६७४ मां लखवामां आवी हती. एमांना ध्ययन अने आवश्यकसूत्रनी टीकामांथी केटलीक उतारा तथा एमां निर्दिष्ट करेलां विविध पाठान्तरो कथाओ लईने वचमा दाखल करी दीधी छे. अने में टिप्पणमांडना चिन्हथी दर्शाव्यां छे. कोई कोई स्थळे विस्तारयुक्त एवी अप्रस्तुत हकि- मळग्रंथना अर्थावबोधनना विषयमा उपरनी टीका कतो उमेरी दीधी छे. सिवाय नीचे सूचवेली बीजी त्रण टीकाओ पण सौथी जूनी टीका तरीके में संदेहविषाषधि नाम- थोडेज अंशे भिन्न पडे छे. परंत आ टीकाओमा नी पञ्जिकाने उपयोगमां लीधी छे. एना का एक उपोद्घात उपरांत अन्य ग्रंथोमांथी घणां अवत. बन्ने भागोने जो आपणे बे जुदी जुदी वाचनामां विभक्त रणो अने कथाओ आपेली छे. तेमां पर्युषणाकल्प. करीए, अने कालिकाचार्यनी कथाने काढी नांखीए तो ते नियुक्तिनी टीका नथी. ते त्रणे टीकाओ नीचे वाचनानी प्रसिद्ध व्यवस्थानी बराबर थई रहे छे. प्रमाणे छे: Aho I Shrutgyanam
SR No.009877
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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