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________________ जैन साहित्य संशोधक. [ भाग नांख्युं छे. घj करीने मूळ ग्रंथने पछीना उमेराओथी पोताना सेनांगज नामना प्रियपुत्रना मरणजनित बचाववा माटेज संपादकने आ व्यवस्था स्वीकार- शोकथी मुक्त करवा अथे, तेने सभामां वांचवामा वानी आवश्यकता लागी हशे. आ ग्रंथशतिओनी आव्यु। त्यारथी ते सूत्र नव वाचनाओ अथवा निशानी मळग्रंथमां ग्रं० १००, ग्रं० २०० इत्यादि व्याख्यानो द्वारा सार्थ समजाववामां आवे छे. आ रूपमा मकेली छे. आ निशानिओ सघळी हस्तलि- नव वाचनाओ केटलीक प्रतिओमां, तेमज केटलीक खित प्रतिओमां समान जग्याएज मकेली जोवामां टीकाओमां चिन्ह अथवा उल्लेख करी जुदी जुदी बतावआवे छे. कल्पसूत्रमा आवा १२१६ ग्रंथो होवानुं वामां आवी छे. परंतु आ विषयमां बधानो एक कहेवाय छे. उदाहरण तरीके A प्रतिना पुष्पिका- मत नहीं होवाथी मारी आवृत्तिमां में आ वाचनालेखमां आपेलो नाचनो श्लोक लई शकाय:---- त्मक विभागो दाखल कर्या नथी. साधारण रीते एकः सहश्रो (?) द्विशतीसमेतः महावीरचरित छ वाचनामां विभक्त करवामां आवे श्लिष्टस्ततः पोडशभिर्विदन्तु । छे. बाकीनां जिनचरितो सातमी वाचनामां गणाय कल्पस्य संख्या कथिता विशिष्टा छे. अथवा तो महावीरचरितनी पांच, अने बाकीनां विशारदैः पर्युषणाभिधस्य ।। जिनचरितोनी बे, आवा रीते पण सात वाचनाओ आ संख्याने लीधे वर्तमानमा सामान्यरीते आ गणाय छे. थेरावली अने सामाचारी ए दरेकनी पुस्तक 'बारसे सूत्र' तरीके पण ओळखाय छे. एकेक वाचना कहेवाय छे.* जिनचरित अने सामा आ आवत्तिमां मारी गणत्री मुजब व्यवस्थित चारी नामना भागमां, सूत्रो अथवा प्रकरणोना संख्या उपरांत एकसोथी वधारे ग्रंथो (श्लोको ) रूपमा मूळ ग्रंथनो एक बीजो पण पेटाविभाग अधिक छे, अने केटलीक ग्रंथशतीन प्रमाण १०० घणीक प्रतिओमां आपेलो जोवामां आवे छे. आ थी १३५ जेटला ग्रंथोनुं जोवामां आवे छे. आ विभाग ते घणुं करीने टीकाकारोने आभारी छे. रीते न्यूनाधिक ग्रंथप्रमाणवाळी अव्यवस्था जोईने, कारण के तेमणेज आनो उपयोग करेलो छे. स्थविकेटलाक संदेहजनक प्रकरणो काढी नांखी, आ रावली उपर टीका रचाएली नहीं होवाथी तेनी सूत्रने मूळ स्वरूपमां--असलनी ग्रंथसंख्यामां---लावी सत्रोमां वहेंचणी थवा पामी नथी. यद्यपि आ सूत्रामूकवानुं मारूं मन थई आवे छे. परंतु, आ सूत्रनी रमक विभाग सघळी प्रतिओ अने टीकाओमां एकज शिथिल रचना, अने एमां वारंवार आवती पुनरु- - क्तिओ, के जे सत्रशलीनं एक खास लक्षण ज +आ बीनानी मितिना संबंधमां एक मत नथी. केटलाक छ. तेनेलाईने आमांना या भागो अमल तेने वी. नि. ९८० मा वर्षमा के छ, केटलाक ९९३ मां ते शोधी काढवानें काम कठण होवाथी, हुं तेम अने केटलाक वळी वी. सं० १०८० मा मूके छे. करता मारा मनने रोकी रा छं. *E नामनी हस्तलिखित प्रतिमां नीचे प्रमाणे व्याख्या नकोनी वहेचणी करली छे:-'पुरिम परिमगाथा-शकस्तवं यावत्, वखतमां शक्रस्तवगर्भावतारसंचारः, स्वप्नविचारगर्भस्थाभिग्रहः, जन्मोकल्पसूत्र पज्जुसणनी प्रथम रात्रिए* वांचवामां आवतुं त्सवक्रीडा-श्रीवीरकुटुम्बविचाराः, दीक्षा-ज्ञान-परिवार-मोक्षाः, हतुं. परंतु, ज्यारथी ते आनन्दपुरना राजा ध्रुवसेनने, श्रीपार्श्वनाथ-श्रीनेमिचरितान्तराणि, श्रीआदिनाथचरित्र-स्थविरावलयः, सामाचारीमिच्छा () श्रीकालिकाचार्यकथा. कालिकाचार्यनी कथा स्वतंत्र होवाथी ते कल्परात्रनी पाछळ * कल्पसूत्रनी टीकाओमा लख्या प्रमाणे तो 'प्रथम तहन अर्वाचीन समयमा दाखल थएली छ. उपर आपेली रात्रिए' नहीं पण अन्तिम रात्रिए कल्पसूत्रनुं अध्ययन-श्रवण वाचनानी गणनामां आदिनाथ अथवा ऋषभचरित्र अने करवामां आवतुं हतु.-संपादक. स्थविरावली ए बनेने एकज वाचनामा मकी दीधा छे. मा Aho! Shrutgyanam
SR No.009877
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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