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________________ जाता है। इस विद्या को अंग्रेजो में Palmispy अथवा Chiromaney कहते हैं । मुख्यतया हस्ताङ्कित रेखादि देख कर ही इस शास्त्र के द्वारा शुभाशुभ फलों का निर्देश किया जाता है। विद्वानों ने सामुद्रिक शास्त्र को अधिक महत्व क्यों दिया है, इसका खुलासा नीचे किया जाता है। बद्यपि शरीर के प्रत्येक अङ्ग में शुभाशुभबोधक चिह्न विद्यमान हैं। किन्तु वे चिह्न विशेष रूप से स्पष्ट हथेली में ही पाये जाते हैं। स्वभावतः हस्त का विशेष महत्व देने का हेतु एक और भा है। हमारे सभी काम हाथ से ही हाते हैं। मंगल और अमङ्गल कार्यो का करनेवाला यहा है। अतः इसो हाथ पर शुभाशुभ चिह्नां का चित्रण करना उपयुक्त हो है। इसके साथ २ एक और भी बात है, अगर मनुष्य में इस विद्या का ज्ञान और अनुभव हा वह अपना हाथ स्वयं अन्य अंगों को अपेक्षा आसानी से देख सकता है। यह कार्य अन्य किसो अङ्ग से सुलभ नहीं हो सकता। इसो से हस्त को रेखा परिज्ञान के लिये विशेष स्थान प्राप्त है। विद्वानों का मत है कि इसके आविष्कारक हाने का सौभाग्य भारत को ही प्रात है। यहां से चोन और ग्रीक में इस विद्या का प्रवार हुआ। पश्चात् प्रोक से यारप के अन्यान्य भागों में यह विद्या फैली। ऐतिहासिक विद्वानों का यह भो अनुमान है कि ईसा के लगभग ३००० वर्ष पूर्व चीन में एवं २००० वर्ष पूर्व ग्रीक में इसका प्रचार हुआ। अतः निन्तिरूप से यह जाना जा सकता है कि भारत में इसके पहले से हो इसका प्रचार रहा होगा। हाथ में जितनो ही कम रेखायें हागी और हाथ साफ रहेगा वह पुरुष उतना ही अधिक भाग्यशाली समझा जाता है। हथैली के प्रधानतः सात रेखा पर हो विचार हाता है। (१) पितृरेखा (२) मातृरेखा (३) आयूरेखा (४) भाग्यरेखा (५) चन्द्ररेखा (६) स्वास्थ्यरेखा और (७) धनरेखा । इनमें आदि के चार प्रधान हैं। इनके अतिरिक्त सन्तान, शत्र , मित्र, धर्म, अधर्म आदि और भी कई रेखायें होती हैं। अस्तु इस विषय को यहां अधिक बढ़ाना अप्रासंगिक होगा। अब मुझे यहां पर यह विचार करना है कि ग्रहों के शुभाशुभ फलकथन के सम्बन्ध में लोगों की क्या धारणा है। वैज्ञानिकों का कथन है कि मनुष्य अपने अपने कर्मानुसार ही समय समय पर सुखी या दुःखी हुआ करते हैं। उनके उस सुख-दुःख में सूर्य चन्द्रादि खगोल के ग्रह कारण नहीं हैं। हाँ, ग्रहों की स्थिति के अनुसार प्राणियों के भावी कल्याण या अकल्याण का अनुमान किया जा सकता है। ग्रहों के अनुसार भविष्य में विपत्ति की सम्भावना होने पर उसको दूर करने के लिये शान्ति का अनुष्ठान करने से प्राणियों को फिर उस विपत्ति का ग्रास नहीं होना पड़ता आदि । प्रस्तु, वैज्ञानिकों का प्रहफलसम्बन्धी यह मन्तव्य जैनधर्म के ग्रहफलसम्बन्धी मन्तव्यों Aho ! Shrutgyanam
SR No.009876
Book TitleGyan Pradipika tatha Samudrik Shastram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamvyas Pandey
PublisherJain Siddhant Bhavan Aara
Publication Year1934
Total Pages168
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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