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________________ ५४ ॥ श्रीअर्जुनपताका ॥ यथायवनयंत्रस्याऽ-ब्धित्रिशसिध्याददिकागतिः॥ श्रीमद्विजययंत्रोकाऽ-ष्टमीशुद्रेषु सोत्तमा ॥ ६ ॥ अर्थ:-जेम यवनोना विंशतियंत्रमा ४-३-८ इत्यादि गति) गृहोनो अनुक्रम कयो छे, तेम विजय यंत्रमा कहेली आठमी गति शुद्रोमां [शुद्रो माटे ] उत्तम छे. ॥६॥ स्थान द्वयेऽत्र यवन-रेक दानं विनिर्मितम् । तेनाद्वके द्वादशाप्तिः । षढ़े षोडश संभवः ॥ ७ ॥ अर्थः-यवन विंशति यंत्रमां यवनोबे स्थानोमां[बे कोठांमां ] १ नो अंक [ अधित ] स्थापन कर्यो छे, ते कारण २ ना कोठामा १२ अने ६ ना कोठामा १६ नो अंक स्थपाय छे ॥७॥ मध्ये तत्र दश स्थानं । यथा त्रांतस्तथा दश । कमलाकृति यंत्रेपि । तत्क्रमादग्निगाः शिवाः ११॥ ८ ॥ अर्थः-त्यां मध्य कोठामा १० अंकस्थान जे आ विंशति यंत्रमा छ, तेम कमलाकृति यंत्रमां पण मध्य कोठामा १० नो अंक छे, त्यारबाद अनुक्रमे आगळ चालतां [शिव-] ११ नो अंक स्थपाय छे. ॥ ८॥ क्रमाप्त पंचकात्पंचा-धिक त्वेदश १० मध्यगा। तदेका दशतः पंचा-धिकत्वेऽधस्क्त षोडशः ॥९॥ ३ आठमी गति स्नेलो यंत्र आ प्रमाणे 17 आ यंत्रोमां २० नी १.। गणत्री केवी रीते करवी ते चालु टीकाना भावार्थमांज कहेवाशे. Aho I Shrutgyanam
SR No.009872
Book TitleAnubhutsiddh Visa Yantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMeghvijay
PublisherMahavir Granthmala
Publication Year1937
Total Pages150
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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