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________________ ४४ || श्री अर्जुनपताका || क्रमागतां न विलापनंचे । त्कथं तदेका दश चांकतः स्युः ॥ द्वयाधिक त्वा नवसुस्थलेषु । अंकेतदेकत्र कृतोर्थ भेदः ॥ १४ ॥ १५ - तथा १८ यंत्रमां ( आवेला ९ - ९ अंको ) अनुक्रमे आवेला होवाथी क्रम प्राप्त थयेला कोई पण अंकनो लोप भयो नथी, परन्तु २० ना यंत्रमां क्रमे आवता अंकोमांथी अंक अंकना लोप करवो पडे छे, अने जो ते क्रमे आवता अंकोमांथी अक अंकोनो लोप न करीओ तो आदि अंक २ नो होवाथी अथवा बे अंक होवाथी ( ओटले पंदरीयानो पर्यन्त अंक ९ त्यारे विंशतिनो पर्यन्तक ११ ( ओटले २ थी ११ सुधीना १० अंक ) होवाथी ते १० अंको नव गृहोमां केवी रीते स्थपाय ? ते कारणथी अक अंकमा अर्थ भेद करवो पडे छे, [ अर्थात् नव खानांमां दश अंको न गोठवाई शकवाना कारणथी अंक अंकनो ओक लोप करवो पडे छे. ] ॥१४॥ यंत्रेतदेकाधिक विंशविद्धे । एकादशांता स्त्रिमुखाहितेंका: । एकोनतायामपि विंशयंत्रे । विनार्थभेदं गतिरस्तिनान्या ॥ १५ ॥ अर्थ:-अने ते कारणथीज अक अधिक वीस [२१] ना यंत्रमां त्रणथी प्रारंभीने अगिआर सुधीना नव अंक छे, जेथी तेमां अंक लोप करवो पड्यो नथी, अने वीसनो यंत्र अकवीसनी अपेक्षाओ ओक न्यून होवा छतां पण अंकलोप थाप छे, माटे विंशति यंत्रमां अर्थ भेद विना [ अंक लोप विना ] बीजी कोई गति नथी ॥ १५ ॥ जघन्यभावेनजिनादशस्युः । जिनद्वयं २ वर्णभिदाऽष्टतेपि ॥ नित्याजलेशा४पुनरत्रसिद्धा२४ गत्वात उच्चैर्नग ७ रज्जुदेशम् ॥ १६ ॥ Aho! Shrutgyanam
SR No.009872
Book TitleAnubhutsiddh Visa Yantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMeghvijay
PublisherMahavir Granthmala
Publication Year1937
Total Pages150
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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