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________________ सन्मति-तीर्थ इन सब निकषों से विद्यादान करते करते गुरू या आचार्य को स्वयं भी आत्मविकास की साधना करनी चाहिए । आदर्श गुरु या शिक्षक के निकष जो भगवान महावीर ने आजसे २६०० वर्ष पूर्व बताये हैं, ये सारे निकष आज भी आदर्श शिक्षक या उत्कृष्ट प्रवक्ता के लिए ज्यों कि त्यों लागू होते हैं । भाषा के माध्यम से चलनेवाले हर क्षेत्र में जैसे स्कूल या महाविद्यालय, मिडिया, दूरदर्शन, रेडिओ आदि सबके लिए ये उपयुक्त बातें बहुत मायने रखती हैं । अगर 'ग्रन्थ' अध्ययन में बताये हुए इन अध्ययनक्षेत्र के निकषों पर अंमल किया जाय तो, 'आदर्श शिक्षा व्यवस्था' का यह उत्तम उदाहरण हम पूरे विश्व के लिए वरदान साबित होगा जिसकी आज निहायत जरूरत है। सन्मति-तीर्थ 'ग्रन्थ' अध्ययन में अन्तिम १० गाथाओं में गुरु की ज्ञानपरम्परा को अग्रेसर करनेवाला शिष्य कैसे तैयार किया जाता है इसका अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में विवेचन किया है । आदर्श प्रवक्ता के लक्षण एवं आदर्श गुरु के निकष भी यहाँ बताये है, जो सार्वकालिक, मार्गदर्शक एवं अनुकरणीय है। जीवनोपयोगी सभी विषयों में एवं आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक इ. सभी विषयों में निष्णात 'गुरु' ही शिष्य के लिए एक आदर्श शिक्षा-संस्था होती है । इसलिए गुरु के लिए भी एक कसौटी ही होती है । गुरु को हरपल सावधान रहकर सिद्धांतोचित व्यवहार ही करना होता है । इसके अलावा गुरु पारदर्शी हो, कथनी-करनी में समान हो । तथा शिष्य के हर शंका का समाधान, संशोधन करके, सोच-विचार करके ही देना चाहिए । कालानुरूप हर विषय की जानकारी गुरु को होनी चाहिए । गुरु बहुश्रुत होना चाहिए । इस तरह गुरु कैसा होना चाहिए यह बताकर अब प्रवक्ता की भाषा कैसी हो यह भी यहाँ बताया है। ज्ञानदान का माध्यम है भाषा । इसलिए गुरु को भाषा का विशेष ध्यान रखना चाहिए । उच्चारण शुद्ध हो, शास्त्रार्थ को छिपाना नहीं चाहिए । शास्त्र से अधिक या विपरीत प्ररूपणा नहीं करनी चाहिए । गुरु को अहंकार या दूसरों का परिहास नहीं करना चाहिए । द्रव्य, क्षेत्र, भाव के अनुसार स्याद्वाद से ही बोलना चाहिए । सत्य एवं व्यवहार भाषा का प्रयोग करें । विद्यार्थियों की क्षमता, पात्रता इ. ध्यान में लेकर उनकी मति के अनुसार दृष्टांत देकर समझाना चाहिए । वक्तृत्व के दौरान विषय के संक्षेप, विस्तार का भी विवेक रखना चाहिए । गुरु संतुष्ट होकर किसी की भौतिक उन्नति हेतु आशीर्वाद न दे या क्रोध में आकर किसी के लिए अपशब्द भी न कहें । वैसे भी जैन दर्शनानुसार कर्मसिद्धान्त के फलविपाक में कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता।
SR No.009869
Book TitleSanmati Tirth Varshik Patrika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNalini Joshi
PublisherSanmati Tirth Prakashan Pune
Publication Year2012
Total Pages48
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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