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________________ सन्मति-तीर्थ -सन्मति-तीर्थ (१८) सूत्रकृतांग-लेखमाला : जैन जागृति मासिकपत्रिका (लेखांक ४) सूत्रकृतांग में 'गुरुकुलवास' एक आदर्श शिक्षा-प्रणाली व्याख्यान : डॉ. नलिनी जोशी शब्दांकन : सौ. चंदा समदडिया प्राय: सभी जैन दर्शनग्रन्थों में श्रुतधर्म पर आधारित अहिंसात्मक आचारप्रणाली का विशद वर्णन मिलता है । सूत्रकृतांग भी इसका अपवाद नहीं है । इसके अलावा सूत्रकृतांग का 'ग्रन्थ' अध्ययन, आदर्श शिक्षाप्रणाली का उत्तम नमूना है । इस दृष्टि से सूत्रकृतांग का विशेष महत्त्व है । अध्ययन का शीर्षक 'ग्रन्थ', यह जैन पारिभाषिक शब्द, ममत्व या परिग्रह इसी अर्थ से प्रयुक्त किया गया है। विद्या प्राप्ति की इच्छा रखनेवाले हर विद्यार्थी को ग्रन्थ से निर्ग्रन्थ या ग्रन्थी बनाने की प्रक्रिया का विशद वर्णन यहाँ किया गया है। गाथा क्र. १ में 'गुरुकुलवास' के लिए 'ब्रह्मचर्य' शब्द प्रयुक्त किया है। 'ब्रह्मचर्य' शब्द के तीन अर्थ होते है । भारतीय सभी दर्शनों में ज्ञान प्राप्तिके लिए 'ब्रह्मचर्य पालन' अत्यन्त अनिवार्य माना गया है । वैदिक परम्परा में 'गुरुकुलवास' की अवस्था को ही 'ब्रह्मचर्याश्रम' कहा है। 'सूत्रकृतांग के अनुसार गुरुकुलवास दो प्रकार का है - १) दीक्षा अर्थात् 'आजीवन गुरुकुलवास' । २) शिक्षाप्राप्ति हेतु कुछ समय के लिए गुरुकुलवास । इसलिए गुरु या आचार्य भी दो प्रकार के कहे हैं - १) दीक्षा दाता २) शिक्षा दाता अर्थात् शास्त्र पाठ की वाचना देकर सामाचारी एवं परम्पराओं का ज्ञान सिखानेवाले गुरु । ऐसे श्रुत पारगामी आचार्य ज्ञान परम्परावाहक भावी शिष्य को बाह्याभ्यन्तर 'ग्रन्थ' का स्वरूप समझाकर ग्रन्थियों को क्षीण करने का अभ्यास कराते हैं । जिससे शिष्य को पूरी तरह से ग्रन्थमुक्त होकर निर्ग्रन्थ अवस्था तक पहुँचाया जाता है । इस तरह शिष्य को मोक्षाधिकारी बनाया जाता है । ऐसे कुशल आचार्य ओजस्वी, तेजस्वी, गीतार्थ, पारगामी इ. गुणों के धारक होते हैं । गुरुकुलवास में रहनेवाले शिष्य के लिए कौनसे आवश्यक गुण या योग्यताएँ होना जरूरी हैं उनका भी यहाँ विस्तृत वर्णन है । 'गुरुकुलवास' में जाति वर्ण की उच्चनीचता भेदभाव से रहित अनेक विद्यार्थियों का एक संघ होता है और संघ अनुशासन से ही चलता है। इसलिए (गाथा क्र. ७ से १२ तक) कठोर अनुशासनपालन के लिए आवश्यक होती है 'सहनशीलता', इसलिए सहनशीलता बढाने का उपदेश दिया है । इसके अलावा शिष्य को विनयशील, इच्छारहित, चतुर एवं अप्रमत्त होना जरूरी है । साथ में शिष्य को आज्ञाकारी भी होना चाहिए । सहनशीलता के अभाव में या वृथा आत्मविश्वास के कारण अपरिपक्व अवस्था में गुरुकुलवास को छोडनेवाले शिष्य की हालत 'नवजात, शक्तिहीन पक्षी शिशु के जैसी, जिसे ढंक आदि प्रबल पक्षी मार डालते हैं ?' वैसी ही होती है। गाथा क्र. १३ से १८ में गुरुकुलवास में रहनेका फल बताया है, शिष्य को ज्ञानप्राप्ती, धर्म, कर्तव्य का बोध होता है, सहनशीलता, अप्रमत्तता आदि गुणों का वह अभ्यासी होता है । मोहरहित, संयमित जीवन जीने की कला सिखता है । आचरण में निपुणता के साथ साथ नवशालिनी प्रतिभा का पूरा विकास होता है और इस तरह शिष्य सम्पूर्ण परिपक्व अवस्था को प्राप्त होता है और इसी में 'गरु' अपने जीवन की 'इति कर्तव्यता मानते हैं।'
SR No.009869
Book TitleSanmati Tirth Varshik Patrika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNalini Joshi
PublisherSanmati Tirth Prakashan Pune
Publication Year2012
Total Pages48
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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