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________________ २३ पुरुष : ईश्वर और ब्रह्म योनिवाद के अनन्तर श्वेताश्वतरोपनिषद् में पुरुषवाद की चर्चा है। भारतीय दर्शन में पुरुष शब्द के अनेक अर्थ हैं, जिनमें तीन प्रमुख हैं-व्यक्ति, ईश्वर और ब्रह्म। __यदि हम व्यक्ति को सुख-दुख में सर्वथा स्वतन्त्र मानें तो यह बहुत हद तक सत्य है किन्तु उसकी यह स्वतन्त्रता उसके अपने कर्मों द्वारा सीमित भी है। अतः व्यक्ति उतनी सीमा तक सीमाओं में बंधा हुआ भी है। व्यक्ति जो कुछ करता है या जो कुछ है, उसका पूर्ण उत्तरदायित्व उस पर ही है। किसी भी सदाचार के पालन के लिए व्यक्ति को अपने कर्मों के लिए उत्तरदायी मानना आवश्यक है। किन्तु हम सत्य से मुंह नहीं मोड़ सकते। परिस्थितियाँ भी हैं और वे सत्य हैं। हमारे भूतकाल के कर्म ही हमारी वर्तमान परिस्थितियों के रूप में आ गये हैं और इस प्रकार व्यक्ति पूर्णतः स्वतन्त्र नहीं है। __पुरुष शब्द का एक दूसरा अर्थ ईश्वर लिया जाता है और यह ईश्वरवाद का सिद्धान्त समस्त संसार में व्याप्त है। संसार का एक ऐसा सर्वशक्तिमान स्वामी मान लिया गया है जो हम सबके भाग्यों को नियंत्रित करता है, हमें जन्म देता है, पालन करता है और प्रलय के समय संसार का नाश भी करता है। इस सम्बन्ध में भी दोनों प्रकार की मान्यताएं हैं कि ईश्वर जो हमें कर्मफल देता है, वह हमारे कर्मानुसार ही होता है या उसमें वह अपनी स्वेच्छा से हेरफेर भी कर देता है। भारतवर्ष में इस ईश्वरवाद के सिद्धान्त का सर्वोत्तम प्रतिपादन गीता में है। हमें अपने व्यक्तित्व को पूर्णतः विसजित करके, बिना शर्त अपने आपको ईश्वर के आगे समर्पित कर देना है। अपने आपको उसकी इच्छा का एक उदासीन निमित्त मात्र मानना है। वही हमारे हृदय में स्थित हमें अपनी इच्छा१. जन्माद्यस्य यत: -ब्रह्मसूत्र, १.१.२. २. गीता, १६.६६.
SR No.009861
Book TitleJain Jivan Darshan ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherRanvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu
Publication Year1975
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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