SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 86
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( 2 ) ਭਾਈ ਮਨੀ २२ जाति, जन्म : पुरुषार्थ श्वेताश्वतरोपनिषद् काल, स्वभाव, नियति, यच्च्छा और भूत के अतिरिक्त एक अन्य सिद्धान्त की भी चर्चा करती है और वह है योनि अर्थात् जन्म । हम जानते हैं कि हमने जिस घर में जन्म लिया उसका चुनाव हमने स्वयं नहीं किया । जो माता पिता, जो गृहस्थ, जो समाज, हमें मिला, वह हमारा जन्मजात है । उसमें हमारे चुनाव का कोई हाथ नहीं, और जन्म हमारे जीवन का प्रारम्भ है। और वह प्रारम्भ ही यदि विषमता से होता है, तो हम अपने जीवन के पुरुषार्थ से उस विषमता को कैसे मिटा सकते हैं ? इस प्रकार वस्तुतः हमारे जीवन की सफलता असफलता बहुत कुछ हमारे जन्म पर ही श्रावृत है । इस विषय में जैन दृष्टि के सम्बन्ध में कुछ अधिक कहने की आवश्यकता नहीं । प्रथम तो यह कहना ही गलत है कि मेरे जन्म में मेरा अपना कोई हाथ नहीं । मेरा जन्म, मेरी परिस्थितियाँ उन सबमें मेरा पूरा हाथ है और केवल मेरा ही हाथ है । किसी और का नहीं । दूसरे व्यक्ति का पुरुषार्थं उसकी परिस्थितियों से बढ़कर है । और अपनी जन्मजात स्थितियों को मनुष्य अपने असाधारण पुरुषार्थं से बदल सकता है। गरीब से गरीब घर में पैदा हुआ बालक संसार में अपने पुरुषार्थ से अपना नाम प्रकाशित कर सकता है और अमीर से अमीर घर में उत्पन्न हुआ बालक अपने आपको नीचा गिरा सकता है । यह भी हम बतला चुके हैं कि जैन धर्म जन्म के आधार पर जातिगत ऊँचनीच की व्यवस्था को कदापि नहीं मानता । पर तब भी यह मानना होगा कि वंश परम्परा और वातावरण के पारस्परिक प्रभाव का जो विवाद आज के मनोविज्ञान में चल रहा है, हमें उसमें मध्यम मार्ग ही अपनाना होगा और यह मानना होगा कि हमारी परिस्थितियाँ और पुरुषार्थ यद्यपि हमारे जीवन में बहुत महत्त्वपूर्ण हैं पर जो कुछ मूलभूत सामग्री उन्हें प्राप्त होती है, वह जन्मजात ही होती है । १. रत्नकरण्डाश्रावकाचार, २८.
SR No.009861
Book TitleJain Jivan Darshan ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherRanvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu
Publication Year1975
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy