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________________ ( ८० ) अवस्था में कर्तृत्ववाद का अभिमान कैसा ? अपने पुरुषार्थ में भाग्य का अवलम्बन कैसा? भाग्य एक बाह्य तथ्य होने के नाते निमित्त हो सकता है, उपादान नहीं बन सकता। यदि उपादान का पुरुषार्थ एक विशेष दिशा में है और वह दिशा यदि स्वस्वभाव में निष्ठ होने की है तो भाग्य एक निष्क्रिय निमित्त मात्र बना रह जाता है। बाह्य परिस्थितियां कभी हमें अपने आप नहीं छोड़ती, हमें जब भी छुटकारा पाना होता है, उनसे स्वयं लड़ना पड़ता है। क्या हमने उन सिद्ध पुरुषों की जीवनियां नहीं देखीं जिनका सारा जीवन ज्ञान के आलोक से आलोकित हो चुका था, किन्तु जिनकी बाह्य परिस्थितियां, फिर भी उनके प्रतिकूल बनी रही। किन्तु क्या वे प्रतिकूल परिस्थितियाँ उनकी प्रगति को उनकी साधना को रोक सकी ? लगता ऐसा है कि शायद इन प्रतिकूल परिस्थितियों ने उनकी साधना में बाधा नहीं दी बल्कि सहायता पहुँचाई । उन्होंने न केवल आने वाली प्रतिकूल परिस्थितियों का हंसकर स्वागत किया, प्रत्युत जानबूझ कर प्रतिकूल परिस्थितियों को आमन्त्रित भी किया। इस प्रकार प्रतिकूल परिस्थितियां उनके लिये एक खेल बन गई जो उनके केवल मनोरंजन का ही साधन नहीं थीं, उनके मानसिक विकास के लिये एक प्रकार से अनिवार्य शर्ते भी थीं, क्योंकि व्यक्ति अपनी शक्ति की यदि परीक्षा करना चाहे, तो उसके लिये उसे प्रतिकूल परिस्थितियां मिलनी ही चाहिएँ और यदि एक स्तर विशेष तक की प्रतिकूल परिस्थितियों को वह जीत ले तो फिर उसकी शक्ति उससे आगे बढ़ी या नहीं, इसकी जांच करने के लिये तो उसे उससे भी अधिक प्रतिकूल परिस्थितियां चाहिएं ही, साथ ही साथ अपनी शक्ति को बढ़ाने का निरन्तर अभ्यास करने के लिए भी उसे निरन्तर प्रतिकूल परिस्थितियों को ललकार-ललकार कर आमन्त्रित करना होता है, और जीतना होता है। तप और कायक्लेश कोई मिथ्या भ्रम पर आधारित किन्हीं रुग्ण-मन वाले निराशावादी लोगों के हथियार नहीं हैं। ये उन लोगों के शस्त्र हैं जो मनुष्य के मनोविज्ञान को समझते हैं, जो यह समझते हैं कि मन कैसे मनुष्य को भुलावा देता है और किस प्रकार मनुष्य बिना प्रतिकूल परिस्थितियों में अपनी आत्मशक्ति का परीक्षण किये अपने आपको परिस्थितियों का स्वामी मान बैठता है किन्तु जब उसे अकस्मात् प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करना होता है, तो उसका यह आत्मविश्वास बालू की नींव पर खड़ा हुआ प्रमाणित होता है।
SR No.009861
Book TitleJain Jivan Darshan ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherRanvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu
Publication Year1975
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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