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________________ ( ७६ ) को तोड़ डालता है, वह एक दिन पुण्य के प्रलोभन को भी तोड़ सकता है । हम पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि पुण्य साधन हैं और इस लोक के सुख तथा परलोक के सुख साध्य हैं। इसीलिये हमने यहाँ यह कहा कि पुण्यों का भी अपना प्रलोभन है। किन्तु पूण्य से जो फल प्राप्त होता है, उसके लिये प्रतीक्षा करनी होती है और जिसकी गरज़ पागल होती है, वह प्रतीक्षा नहीं कर सकता । उसे यह लगता है कि पाप का मार्ग छोटा रास्ता है । उससे अभी और तुरन्त फल प्राप्त किया जा सकता है। अतः जहाँ वासना जितनी अधिक पागल है, वहाँ सुख को प्राप्त करने की इच्छा पाप के द्वारा उतनी ही प्रबल है और ज्यों-ज्यों यह वासना क्षीण होती है, स्थूल इच्छाएँ हमारा पीछा छोड़ देती हैं। किन्तु उनका स्थान सूक्ष्म इच्छाएँ ले लेती हैं और उन सूक्ष्म इच्छाओं की पूर्ति हम पूण्य के मार्ग से करने में लग जाते हैं। इस मार्ग में वासना से छुटकारा नहीं है, परिस्थितियों की दासता से छुटकारा नहीं है स्वतन्त्रता नहीं है; किन्तु वासना का हलकापन अवश्य है, परिस्थितियों से ऊपर उठकर व्यक्ति को खुली हवा में सांस लेने का अवकाश अवश्य मिल जाता है। चाहे वह स्वतन्त्रता प्राप्त न कर सके, उसे स्वतन्त्रता के दर्शन अवश्य हो जाते हैं, आभास अवश्य हो जाता है। यही हल्का-सा आभास अन्त में स्वतन्त्रता की प्राप्ति का कारण बनता है, ऐसी स्वतन्त्रता जहाँ केवल वह ज्ञान-चेतना रह जाती है जिसका उल्लेख हमने ऊपर ही किया है। हमारा भाग्य और भविष्य चाहे निश्चित भी है, पर क्या उसे हम जानते हैं ? और तब हमारे पास अतिरिक्त इसके और चारा भी क्या है कि हम पुरुषार्थ करें, क्योंकि हमारे आधीन तो वही है। और यदि हम पुरुषार्थ नहीं करना चाहते, तो अपने आपको बाहर की भाग-दौड़ से खींच कर यह प्रान्तरिक पुरुषार्थ करें कि अपने आपको अपने स्वतन्त्र-स्वरूप में लगा दें। - हर कार्य में दो कारण रहते हैं उपादान कारण और निमित्त कारण । काल, स्वभाव, नियति, परिस्थितियाँ, जन्मजात गुण या दोष-ये सब निमित्त हैं। उपादान तो व्यक्ति का स्वयं का पुरुषार्थ है। जिस प्रकार बाहर के अन्य निमित्त मेरे पुरुषार्थ के करने पर तदनुकूल सहायता तो दे सकते हैं, किन्तु मेरे पुरुषार्थ के बिना निष्क्रिय रहते हैं, उसी प्रकार मैं अपने से दृष्टि हटा कर किसी अन्य को केन्द्र बनाकर देखें तो उसकी अपनी दृष्टि तो वही उपादान कारण होगा, मैं तो केवल उसका निमित्त बन सकता हैं। इस प्रकार सभी पदार्थ अपने-अपने उपादान और परपदार्थ के निमित्त कारण हैं। ऐसी
SR No.009861
Book TitleJain Jivan Darshan ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherRanvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu
Publication Year1975
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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