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________________ (( २३ ) को अनावश्यक कहते हैं, उनका अभिप्राय केवल यह होता है कि सामान्यतः धर्म के नाम पर जिन सिद्धान्तों की चर्चा होती है, वे सिद्धान्त उस लक्ष्य की ओर ले जाने वाले नहीं हैं, जिसे वे सुख मानते हैं और इसलिये वे उन सिद्धान्तों को भी निरर्थक मानते हैं। एक उक्ति है कि बिना प्रयोजन के मूर्ख व्यक्ति भी कोई कार्य नहीं करता किन्तु इसका एक दूसरा पहलू भी है कि ऐसा व्यक्ति जिसे कोई प्रयोजन ही न हो, या तो पागल हो सकता है या फिर ऐसा व्यक्ति हो सकता है जिसने पूर्णता प्राप्त कर ली है, जो कृतकृत्य हो चुका है। यह मानना पड़ेगा कि हम न तो पागल हैं और न हमने पूर्णतः प्राप्त की है। फिर हमारे जीवन में कुछ न कुछ साध्य तो अवश्य होने चाहिएँ। और यदि हमारे जीवन में कुछ साध्य है तो फिर उसका साधन भी अवश्य खोजना होगा। हमने ऊपर कहा कि एक दृष्टि से पाप और पुण्य में कोई भेद नहीं है। पाप और पुण्य में यह अभेद दो दृष्टियों से देखा जा सकता है । प्रथम तो जिस व्यक्ति को अपने लक्ष्य का ज्ञान ही नहीं है, उसके लिये कोई भी कर्म अच्छा या बुरा इसलिये नहीं कहा जा सकता, कि बिना साध्य के वह साधन तो बनता नहीं। और यदि वह किसी साध्य का साधन नहीं बनता, तो फिर उसकी अच्छाई और बुराई का मापदण्ड क्या होगा ? अभिप्राय यह है कि जिस व्यक्ति को अपने लक्ष्य का ज्ञान नहीं है, या लक्ष्य का गलत ज्ञान है उसके लिये पाप और पुण्य का भेद ही नहीं बनता। वह व्यक्ति स्वयं चाहे अपने कर्मों को अपने गलत निश्चित किये गये लक्ष्य की दृष्टि से पाप और पुण्य कहता रहे, किन्तु सत्य लक्ष्य की अपेक्षा उसके कर्म, पाप और पुण्य नहीं बन सकते । एक दूसरी दृष्टि भी है, जिससे पाप और पुण्य में अभेद किया जा सकता है । हमने पर कहा कि जो व्यक्ति पूर्ण हो गया है, कृतकृत्य हो गया है, उसे कुछ प्राप्तव्य नहीं है। एक प्रकार से उसके जीवन में भी कोई लक्ष्य नहीं रह जाता। इसलिये उसके कर्मों को भी पाप या पूण्य की संज्ञा देना व्यर्थ-सा होगा। इस परमार्थ दृष्टि से भी पाप और पुण्य में भेद नहीं बनता। किन्तु एक तीसरी स्थिति भी है, जिसमें व्यक्ति लक्ष्यभ्रष्ट भी नहीं हो सकता, उसे अपने लक्ष्यों का ज्ञान भी है, किन्तु वह अभी तक अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सका है, कृतकृत्य नहीं हो सका है। उसके लिये पाप और पुण्य का भेद बना रहेगा। वह यह जानेगा कि लक्ष्य की प्राप्ति हो जाने पर यह पाप और पुण्य का सापेक्ष भेद चाहे विलीन हो जाने वाला है, किन्तु जब
SR No.009861
Book TitleJain Jivan Darshan ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherRanvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu
Publication Year1975
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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