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________________ ( २२ ) ऊपर जो पुण्य की निन्दा की गई है, वह ऐसे व्यक्ति के पुण्य की निन्दा नहीं है, जो उन पुण्यों का लक्ष्य भोगों की प्राप्ति नहीं मानता और ऐसे ही व्यक्ति का कोई कर्म पुण्य कहला भी सकता है। ऐसे व्यक्ति के लिये पुण्यों का शास्त्र में विधान भी है। थोड़ा सा ध्यान करें तो प्रतीत होगा कि पुण्यों के द्वारा प्राप्त होने वाले समस्त पदार्थ बाह्य पदार्थ हैं। इस बात को भी साधारण सा विचार करने पर प्रत्येक व्यक्ति समझ सकेगा कि सुख प्रात्मा में निष्ठ रहने वाला एक गुण है । बाहर के जड़ पदार्थ सुख के अधिष्ठान नहीं बन सकते । किन्तु इस प्रश्न को लेकर बहुत बड़ा वादविवाद चलता रहता है। कोई पुण्य की निन्दा में अपने को कृतार्थ मानता है, कोई पुण्य का विधान करने में अपने को कृतकृत्य मानता है, और कोई यह मानता है कि जैन और अन्य भारतीय दर्शन आचार और चरित्र को समझते ही नहीं। और इस सारे वाग्जाल से तंग व्यक्ति यह कह कर समस्या को टाल देता है कि हम इस पाप पुण्य के पचड़े में नहीं पड़ना चाहते । पड़ना कोई भी नहीं चाहता, किन्तु सचाई यह है कि हम बंधे हुए हैं। और उस बन्धन से मुक्त होने की इच्छा सबमें है । कोई मनुष्य यह कह सकता है कि उसे धर्म से प्रयोजन नहीं, उसे पाप-पुण्य के चक्करों में नहीं पड़ना, किन्तु यह नहीं कह सकता, कि उसे सुख नहीं चाहिए, उसे स्वतन्त्रता नहीं चाहिए । और यदि वह दुख की निवृत्ति के प्रश्न को और सुख की प्राप्ति के प्रश्न को नहीं टला सकता, तो वह धर्म अधर्म के प्रश्न को भी टला नहीं सकता । अन्ततोगत्वा पुण्य क्या है ? अंग्रेजी का शब्द “गुड" जोकि ग्रीक के एक शब्द का रूपान्तर है पुण्य के लिए प्रयोग किया जा सकता है । इस शब्द का शब्दार्थ है वह क्रिया जो किसी लक्ष्य के लिये उपयोगी हो। किन्तु किसी लक्ष्य को सामने रखने पर उसके लिए क्या क्रिया उपयोगी है, क्या अनुपयोगी, यह निश्चय किया जा सकता है और उसके लिए नियम भी बनाये जा सकते हैं। वही क्रिया जो उन नियमों के अनुसार होती है, अंग्रेजी में "राइट" कहलाती है जो लैटिन के 'rectus' शब्द से निकली है। अभिप्राय यह है कि हमारे कार्यों का औचित्य या अनौचित्य लक्ष्य सापेक्ष हैं और यदि लक्ष्य सुख का है तो फिर हम जो भी नियम उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये बनाएं, वे धर्म कहलाएंगे, यह दूसरी बात है कि एक व्यक्ति सुख का स्वरूप कुछ और माने दूसरा कुछ और माने और इस प्रकार वे धर्म का भी स्वरूप पृथक्-पृथक् माने । किन्तु धर्म एक सुखदायिनी क्रिया के रूप में प्रत्येक व्यक्ति के लिये आवश्यक है, जो धर्म
SR No.009861
Book TitleJain Jivan Darshan ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherRanvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu
Publication Year1975
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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