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________________ 12 ॥ आचार्य व्रज का इतिवृत्त । ( तिर्यक्जृंभक देव) वज्रस्वामी पूर्वभव में वैश्रमण इन्द्र के सामानिक देव थे । भगवान् वर्द्धमान स्वामी पृष्ठचंपा नगरी के सुभूमिभाग उद्यान में समवसृत हुए। उस नगरी का राजा शाल तथा युवराज महाशाल था। उनकी भगिनी यशो के पति का नाम पिठर और पुत्र का नाम गागली था । शाल भगवान् के समवसरण में गया। धर्म सुनकर वह बोला- 'भगवान् ! मैं युवराज महाशाल का राज्याभिषेक कर आपके पास प्रव्रज्या ग्रहण करूंगा।' वह अपने राजप्रसाद में आकर महाशाल से बोला- 'तुम राजा बन जाओ। मैं प्रव्रज्या ग्रहण करूँगा ।' महाशाल ने कहा"राजन् ! जैसे आप यहाँ हमारे मेढीभूत हैं, वैसे ही प्रव्रजित होने पर भी होंगे। मैं भी आपके साथ प्रब्रजित होना चाहता हूँ ।' तब कांपिल्यपुर से गागली को बुलाकर उसका राज्याभिषेक कर दिया गया। उसकी माता यशोमती कांपिल्यपुर में ही थी । उसके पिता पिठर भी वहीं थे । राजा बनते ही गागली ने उनको पृष्ठचंपा नगरी में बुला लिया। उसने दो दीक्षार्थियों के लिए हजार पुरुषों द्वारा उठाई जाने वाली दो शिविकाएँ बनवाईं। वे दोनों प्रव्रजित हो गए। भगिनी यशोमती भी श्रमणोपासिका बन गई उन दोनों ने मुनि बनकर ग्यारह अंगों का अध्ययन कर लिया । I एक बार भगवान् राजगृह में समवसृत हुए वहाँ से वे चंपानगरी की ओर जाने लगे। तब शाल और महाशाल- दोनों मुनियों ने भगवान् से पूछा- 'हम पृष्ठचंपा नगरी जाना चाहते हैं। वहाँ कोई सम्यक्त्व - लाभ कर सकता है अथवा कोई दीक्षित हो सकता है। भगवान्ने जान लिया कि वहाँ कुछ लोग प्रतिबुद्ध होंगे। भगवान् ने उनके साथ गौतमस्वामी को भेजा। भगवान् चंपानगरी में पधारे गौतमस्वामी भी पृष्ठचंपा गए। समवसरण में गागली, पिठर और यशोमती ने दर्शन किए। उनमें परम वैराग्य का उदय हुआ । धर्म सुनकर गागली अपने पुत्र का राज्याभिषेक कर माता-पिता के साथ दीक्षित हो गया । गौतमस्वामी उनको साथ ले चंपानगरी की ओर प्रस्थित हुए। उनको चंपानगरी की ओर जाते देखकर शाल महाशाल को बहुत हर्ष हुआ। उन्होंने सोचा, 'संसार से इनका उद्धार हो गया । तदनन्तर शुभ अध्यवसाय में प्रवर्तमान उन दोनों को केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई ।' इधर गौतमस्वामी के साथ जाते हुए तीनों ने सोचा- 'शाल - महाशाल ने हमें राज्य दिया। फिर हमें धर्म में स्थापि कर संसार से मुक्त होने का अवसर दिया।' इस प्रकार के चिन्तन से शुभ अध्यवसायों में प्रवर्तन करते हुए तीनों को केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई । केवली अवस्था में वे चंपानगरी पहुँचे । भगवान् को प्रदक्षिणा और को नमस्कार कर वे केवली - परिषद् की ओर गए । गौतमस्वामी भी भगवान् को प्रदक्षिणा दे उनके चरणो में वंदना करके उठे और तीनों से कहा- 'कहीं जा रहे हो ? आओ, भगवान् को वंदना करो।' भगवान् बोले- 'गौतम केवलियों की आशातना मत करो।' तब गौतमस्वामी ने मुड़कर उनसे क्षमायाचना की। उनका संवेग बढ़ा। उन्होंने सोचा- 'बस में अकेला ही सिद्ध नहीं हो सकूँगा।' Avashyak Niryukti Vol. XX Ch. 150-A, Pg. 8533-8543 Aacharya Vraj ka Itivrutt 353222
SR No.009858
Book TitleAshtapad Maha Tirth 01 Page 336 to 421
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajnikant Shah, Kumarpal Desai
PublisherUSA Jain Center America NY
Publication Year2011
Total Pages86
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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