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________________ Shri Ashtapad Maha Tirth गौतम। वैष्णव आदि सम्प्रदाय में ऐसी भावना है, इसलिए उनके जीवन में कुछ नवीनता आती है। कुछ अद्भुत अनुभूतियाँ भी होने लगती हैं और मार्गानुसारिता का विकास होने लगता है। फिर कोई सम्यक् द्रष्टा ज्ञानी का सुयोग मिल जाए तो उनको ज्ञान पाना कोई दूर नहीं। इसलिए यह पात्रता का विकास भक्ति के जरिये ही होता है। एक बार भगवान् के मुखारविन्द से यह सुना कि जो आत्मलब्धि से अष्टापद की वन्दना करे वह तद्भव मुक्तिगामी हो सकता है, औरों से यह संभव है। आत्मलब्धि द्वारा, देवभक्ति करने हेतु। उन्होंने यह देखा कि यह तो आकाश में उडकर ऊपर जा रहा है, यह गुरु सच्चा। यदि हम इसके शिष्य बन जाएँ तो ऐसी शक्ति हम में भी प्रगट हो सकती है। ऐसी भावना रख करके ये बैठे रहे और आप ऊपर गये। ऊपर जो जिनालय है ऐसे आजकल उल्लेख विस्मृत हो गया है, इसलिए कुछ का कुछ है, मूल चीज़ अनुभवगम्य है। वहाँ तीन चौबीसी के जिनालय हैं। उनमें वर्तमान चौबीसी के रूप में आठवें शिखर के ऊपर चौदह मंदिर हैं और बाकी सातवीं मंजिल पर हैं। जिस में एक जिनालय में एक बिम्ब और चरण, इस तरह से रत्नमय बिम्ब तो कहीं रत्नमय मंदिर भी हैं। कहीं सुवर्णमय हैं इस प्रकार के हैं। वहाँ गणधर गौतम पधारे और वन्दना की खूब उल्लास के साथ। और मूल मंदिर के सामने ग्राऊन्ड है उसमें एक वृक्ष है वह वृक्ष खूब छायादार, उसके नीचे आप रात्रि में रहे हैं। रात्रि के समय में यह वज्रस्वामी का जीव उस समय तिर्यग्जृम्भक देव था, वह वहाँ आया है उनको गणधर गौतम ने प्रतिबोध दिया, उनको आत्मा की पकड़ कराई। प्रतिबोध का मतलब है देह से भिन्न आत्मा को पकड और परिणाम स्वरूप वज्रस्वामी आगे चल कर छोटी वय में ही श्रुतपाठी बन गए हैं। यह है गणधर गौतम की कृपा। -6321 - Mahamani Chintamani
SR No.009858
Book TitleAshtapad Maha Tirth 01 Page 336 to 421
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajnikant Shah, Kumarpal Desai
PublisherUSA Jain Center America NY
Publication Year2011
Total Pages86
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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