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________________ Shri Ashtapad Maha Tirth १०. भरत की आसक्ति शनैः-शनैः भरतजी की आसक्ति मृग-छौने के प्रति इतनी अधिक बढ़ गयी, कि बैठते, सोते, उठते, टहलते और भोजन करते उनका चित्त उसके दृढ़ स्नेहपाश से आबद्ध रहता। जब उन्हें पत्र-पुष्पादि लेने जाना होता तो भेड़ियों और कुत्तों के भय से उसे वे साथ ही लेकर जाते। मार्ग में कहीं कोमल धास देखकर हरिणशावक अटक जाता तो वे अत्यन्त प्रेम-पूर्ण हृदय से अपने कंधे पर चढ़ा लेते, कभी गोदी में उठाकर छाती से लगा लेते। नित्यनैमित्तिक कर्मों को करते समय भी राज-राजेश्वर भरत बीच-बीच में उठकर उस मृग-शावक को देखते, और कभी दिखायी नहीं देता तो अत्यन्त उद्धिग्नतापूर्वक दीन पुरुष की भाँति विलाप करते। ११. भरत का मृग बनना एक दिवस भरत मृग-छौने के निकट ही बैठे हुए थे, कि अकस्मात् करालकाल उपस्थित हो गया, और उन्होंने मृग-शावक के ध्यान में ही प्राण त्याग दिये। 'अन्त मतिः सा गतिः' इस उक्ति के अनुसार वे मरकर मृग बने, परन्तु भगवदाराधना के प्रभाव से उनकी पूर्वजन्म की स्मृति नष्ट नहीं हुई। उन्होंने सोचा, 'अरे, मैंने यह क्या अनर्थ कर डाला। एक मृग-छौने के मोह में लक्ष्यच्युत होकर मैंने दुर्लभ मानवजन्म को स्वयं ही खो दिया।' अब तो वे पूर्णतया सावधान हो गये। वे अपने परिवार को छोड़कर जन्मभूमि कालिञ्चर पर्वत से उसी पुलस्त्याश्रम में चले आये और वहाँ सर्वसंगों का परित्याग कर अन्त में अपने शरीर के अर्धभाग को गण्डकी नदी में डुबोये रखकर मृग-योनि का त्याग किया। १२. राजर्षि भरत की महत्ता अन्त में राजर्षि भरत की श्रेष्ठता का बयान करते हुए भागवत-पुराणकार ने कहा है, 'जैसे गरुड़जी की होड़ कोई मक्खी नहीं कर सकती, उसी प्रकार राजर्षि भरत के पथ का अन्य कोई राजा मन से भी अनुसरण नहीं कर सकता।६३ उन्होंने अति दुस्त्यज पृथ्वी, पुत्र, स्वजन, सम्पत्ति और नारी का तथा जिसके लिये बड़े-बड़े देवता भी लालायित रहते हैं, वह लक्ष्मी उन्हें सहज सुलभ थी, तथापि किसी भी वस्तु की लेशमात्र भी आकांक्षा नहीं की; क्योंकि जिसका चित्त भगवान् मधुसूदन की सेवा में अनुरक्त हो गया है, उनकी दृष्टि में मोक्षपद भी अत्यन्त तुच्छ है। भागवतपुराण में भरती का पुत्र ‘सुमति' बताया है। उसने ऋषभदेवजी के मार्ग का अनुसरण किया। इसीलिये कलियुग में बहुत से पाखण्डी अनार्य पुरुष अपनी दृष्ट-बुद्धि से वेद विरुद्ध कल्पना करके उसे देव मानेंगे।६४ १३. स्मृति और पुराणों में भगवान् ऋषभदेव की स्तुति मनुस्मृति में भी की गई है। वहाँ कहा है-अड़सठ तीर्थों में यात्रा करने से जिस फल की प्राप्ति होती है, उतना फल एक आदिनाथ भगवान् के स्मरण से होता है।६५ लिंग पुराण में ऋषभदेव का सविस्तृत वर्णन मिलता है। नाभिराजा के खानदान का निरूपण करते आर्षमस्येह राजर्षेमनसापि महात्मनः । नानुवमहिती नृपो मक्षिकेव गरुत्मतः ।। यो दुस्त्यजान् क्षितिसुतस्वजनार्थदारान्। प्रार्थ्यां श्रियं सुरवरैः सदयावंलोकम् ।। नैच्छन्नृपस्तदुचितं महतां मधुद्विट् सेवानुरक्तमनसामभवोऽपि फल्गुः ।। -श्रीमद्भागवतपुराण, ५।१४।४२-४४ ६४ भरतस्यात्मजः सुमतिनामाभिहितो यमु ह वाव केचित्पाखण्डीन ऋषभपदवी-मनुवर्तमानं चानार्या अवेदसमाम्नातां देवतां स्वमनीषया पापीयस्या कलौ कल्पयिष्यन्ति। -श्रीमद्भागवतपुराण, ५।१५।१ ६५ अष्टषष्टिपु तीर्थेषु यात्रायां यत्फलं भवेत्। श्री आदिनाथस्य देवस्य स्मरणेनापि तद्भवेत् ।। -मनुस्मृति -25 265 Rushabhdev : Ek Parishilan
SR No.009857
Book TitleAshtapad Maha Tirth 01 Page 249 to 335
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajnikant Shah, Kumarpal Desai
PublisherUSA Jain Center America NY
Publication Year2011
Total Pages87
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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