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________________ Shri Ashtapad Maha Tirth का समाचरण करते हुए स्वसदृश गुणवान् सौ पुत्रों के पिता बने।५८ उनमें महायोगी भरत ज्येष्ठ और श्रेष्ठ थे, अतः उनके नाम से इस अजनाभखण्ड को भारतवर्ष कहने लगे। उनके छोटे कुशावर्त, इलावर्त, ब्रह्मावर्त, मलय, केतु, भद्रसेन, इन्द्रस्पृक, विदर्भ और कीकट ये नौ राजाकुमार थे। उनसे छोटे कवि, हरि, अन्तरिक्ष, प्रबुद्ध, पिप्पलायन, आवि.त्र द्रुमिल, चमस और करभाजन; ये नौ राजकुमार भागवत धर्म का प्रचार करने वाले, परम शान्त और भगवद्भक्त थे। इनके छोटे जयन्ती के इक्यासी पुत्र अति विनीत, महान् वेदज्ञ और आज्ञाकारी थे, वे पुण्यकर्मों का अनुष्ठान करने से ब्राह्मण हो गये ।। यद्यपि भगवान् ऋषभदेव परम स्वतन्त्र होने के कारण स्वयं सर्वदा सर्व प्रकार की अनर्थ परम्परा से रहित, केवल आनन्दानुभव स्वरूप और साक्षात् ईश्वर ही थे तथापि उन्होंने कालानुसार धर्म का आचरण करके उसका तत्त्व न जाननेवाले अज्ञानी मानवों को धर्म की शिक्षा दी, साथ ही सम, शान्त, सुहृद् और कारुणिक रहकर धर्म, अर्थ, कीर्ति, पुत्रादि-संतति और विषय-भोग से प्राप्त होने वाले यथेष्ट आचरण से हटाकर समस्त संसार को शास्त्रोक्त आचरण में लगाया। क्योंकि 'महाजनो येन गतः सः पन्थाः' महापुरुष जैसा आचरण करते हैं, वही विश्व के लिए शास्त्ररूप बन जाता है। यद्यपि वे स्वयं धर्म के रहस्य को जानते थे, तथापि ब्राह्मणों द्वारा कथित साम-दाम आदि उपायों से जनता का पालन करने लगे, और शास्त्रोक्त विधि के अनुसार सौ बार यज्ञेश्वर प्रभु का यज्ञों से पूजन किया। उनके राज्य में ब्राह्मण से लेकर चाण्डाल तक एक भी पुरुष ऐसा नहीं था। जो अपने परमपिता ऋषभराज की प्रसन्नता के अलावा अन्य किसी वस्तु की कामना करता हो। यही नहीं, आकाशकुसुमादि अविद्यमान वस्तु की भाँति कोई किसी वस्तु की ओर दृष्टिपात भी नहीं करता था। ४. पुत्रों को उपदेश एक बार भगवान् ऋषभदेव परिभ्रमण करते हुए 'ब्रह्मावर्त' देश में पहुंचे। वहाँ उद्भट विद्वानों और ब्रह्मर्षियों के समक्ष अपने विनीत पुत्रों को मोक्ष-मार्ग का सुन्दर उपदेश देते हुए कहा- पुत्रो ! यह मनुष्य शरीर, दुःखमय विषयभोगों के लिये ही नहीं है, ये भोग तो विष्ठाभोजी कूकर शूकरादि को भी मिलते हैं, इस नश्वर देह से अन्तःकरण की शुद्धि हेतु दिव्य-तप का ही आचरण करना चाहिये, इसी से ब्रह्मानन्द की संप्राप्ति होती है। जब तक आत्मा को स्वात्मतत्त्व की जिज्ञासा नहीं होती, तभी तक अज्ञानवश देहादिक द्वारा उसका स्वरूप आवृत्त रहता है, और तब तक मन में कर्मवासनाएँ भी बनी रहती हैं, तथा इन्हीं से देह-बन्धन की प्राप्ति होती है। स्वात्मकल्याण किसमें है ? इस बात से अनभिज्ञ पुरुष विविध कामभोगों में फंसकर परस्पर वैरभाव की वृद्धि कर लेते हैं, वे यह नहीं सोचते कि इन वैर विरोधों के कारण नरकादि घोर दुःखों की प्राप्ति होगी।६० मेरा यह अवतार-शरीर सर्वदा अचिन्तनीय है। शुद्ध सत्त्व हृदय में ही धर्म की स्थिति है, मैंने अधर्म को अपने से बहुत दूर ढकेल दिया है इसी से सत्पुरुष मुझे 'ऋषभ' कहते हैं।६१ इस प्रकार भगवान् ने अपने पुत्रों को शरीर, धन आदि की नश्वरता व स्वात्म-तत्परता का सुन्दर उपदेश दिया और अन्त में कहा कि तुम सब मेरे शुद्ध सत्त्वमय हृदय से उत्पन्न हुए हो अतः ईर्ष्या भाव ५८ वही ५।४८ ५९ वही ५।४।९-१३ ६० 'लोकः स्वयं श्रेयसि नष्टदृष्टि योऽर्थान् समीहेत निकामकामः। अन्योन्यवरः सुखलेशहेतोरनन्तदुःखं च न वेद मूढः ।। -श्रीमद्भागवत ५।५।१६ इदं शरीरं मम दुर्विभाव्यं सत्त्वं हि मे हृदयं यत्र धर्मः। पृष्ठे कृतो मे यदधर्म आराद् अतो हि मामृषमं प्राहुरार्याः ।। -वही ५।५।१९ Rushabhdev : Ek Parishilan - 262 -
SR No.009857
Book TitleAshtapad Maha Tirth 01 Page 249 to 335
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajnikant Shah, Kumarpal Desai
PublisherUSA Jain Center America NY
Publication Year2011
Total Pages87
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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