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________________ Shri Ashtapad Maha Tirth २. पुत्र के लिए यज्ञ नाभि को भी अपने पिता आग्नीध्र की तरह कई वर्षों तक सन्तान नहीं हुई, तो उसने पुत्र-कामना से अपनी पत्नी के साथ एकाग्रचित्त् होकर भगवान् यज्ञ-पुरुष का पूजन किया। यद्यपि भगवान् विष्णु की प्राप्ति होना कोई सरल बात नहीं थी तथापि भगवान् भक्त-वत्सल होते हैं। अतएव जब नाभि के यज्ञ में 'प्रवर्दी' कर्मों का अनुष्ठान होने लगा, तब नाभि की श्रद्धा-भक्ति और विशुद्ध भावना का अवलोकन कर स्वयं भगवान् विष्णु भक्ति के परवश हुए भक्त का अभीष्ट सिद्ध करने के लिये प्रकट हुए। साक्षात् भगवान् को अपने समक्ष निहारकर ऋत्विज, सदस्य और यजमान अत्यन्त आल्हादित हुए और स्तुति करते हुए कहने लगे-भगवन् ! यह राजर्षि पुत्र प्राप्ति हेतु यज्ञ कर रहा है, और आप सदृश पुत्र-प्राप्ति की इच्छा से आपकी निर्मल भाव से आराधना कर रहा है। विष्णुजी ने कहा- 'ऋषियो ! आपने मुझे असमंजस में डालने वाला वर मांगा है। मेरे समान तो में ही हूँ, अखिल-सृष्टि में मैं अद्वितीय हूँ, मैं ही मेरे सदृश हूँ तो फिर मेरे जैसा पुत्र मैं कैसे भेज सकता हूँ। तथापि ब्राह्मणों के वचन मिथ्या नही होते, क्योकि द्विजों में देवतुल्य पूजनीय विद्वान ब्राह्मण मेरा ही मुख हैं, अतः मैं स्वयं अपनी अंशकला से आग्नीध्रनन्दन नाभि के यहाँ अवतार लूँगा।' महारानी मरुदेवी के समक्ष नाभि-राजा से कृतप्रतिज्ञा होकर भगवान् अन्तर्ध्यान हो गये। महर्षियों द्वारा पूर्णतः प्रसन्न किये जाने पर स्वयं भगवान् नाभिराज को सन्तुष्ट करने के लिये, तथा संन्यासी और ऊवरता वातरशना मुनियों के धर्म को प्रकट करने के लिए महारानी मरुदेवी के गर्भ में शुद्ध सत्त्वमय शरीर से प्रकट हुए।५४ नाभिनन्दन के अंग जन्मना वज्र, अंकुश आदि श्रेष्ठ चिह्नों से युक्त थे। समता, शान्ति, वैराग्य और ऐश्वर्य आदि महाविभूतियों के कारण उनका प्रभाव अनुदिन वृद्धिगत होने लगा। उनके सुन्दर, सुडोल शरीर, विपुल कीर्ति, तेज, यश व पराक्रम आदि अनुपम गुणों को देखकर नाभिराज ने उनका नाम 'ऋषभ' श्रेष्ठ रखा।५ एक बार ईर्ष्यावश इन्द्र ने उनके राज्य में वर्षा नहीं की, तब योगेश्वर भगवान् ऋषभ ने उनकी मूर्खता पर हँसते हुए अपनी योगमाया के प्रभाव से अपने 'अजनाभखण्ड' में खूब जल बरसाया ।५६ इससे इन्द्र अपने कृत्य पर अत्यन्त लज्जित हुआ। ३. राज्याभिषेक ___महाराजा नाभि मनोनुकूल पुत्र को प्राप्त कर अत्यन्त प्रसन्न हुए। जब उन्होंने देखा कि मंत्रिमंडल, नागरिक व राष्ट्र की जनता ऋषभदेव का बहुमान करते हैं तो उन्होंने ऋषभ को धर्म-मर्यादा की रक्षा हेतु राज्याभिषिक्त कर ब्राह्मणों की देख-रेख में छोड़ दिया और स्वयं स्वपत्नी सहित 'बदरिकाश्रम' चले गये। वहाँ अनुद्वेगपूर्ण अहिंसा की कठोर साधना कर अन्त में नर-नारायण रूप स्वरुप में लीन हो गये।५७ भगवान् ऋषभदेव ने अपने देश अजनाभखण्ड को कर्मभूमि मानकर लोक-संग्रह के लिए कुछ काल में गुरुकुलवास किया। गुरुदेव को यथोचित दक्षिणा देकर गृहस्थाश्रम में प्रवेश की आज्ञा ली। जनता को गृहस्थ-धर्म की शिक्षा देने के लिये देवेन्द्र प्रदत्त कन्या जयन्ती से विवाह किया, तथा शास्त्रोपदिष्ट कर्मों ५४ बर्हिषि तस्मिन्नेव विष्णुदत्त भगवान् परमर्षिभिः प्रसादितो नाभेः प्रिय चिकीर्षया तदवरोधायने मरुदेव्यां धर्मान् दर्शयितुकामो वातरशनानां श्रमणनामृषीणामूर्ध्व-मन्थिनां शुक्लया तन्वावतार। -श्रीमद्भागवत् ५।३।२० तस्य ह वा इत्थं वर्मणा वरीयसा बहच्छलोकेन चौजसा बलेन श्रिया यशसा वीर्यशौर्याभ्यां च पिता 'ऋषभ' इतीदं नाम चकार । -वही ५।४२ वही ५।४।३ ५७ श्रीमद्भागवत ५।४।५ -1 261 - Rushabhdev : Ek Parishilan
SR No.009857
Book TitleAshtapad Maha Tirth 01 Page 249 to 335
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajnikant Shah, Kumarpal Desai
PublisherUSA Jain Center America NY
Publication Year2011
Total Pages87
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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