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________________ Shri Ashtapad Maha Tirth पौराणिक आख्यान के अनुसार श्री सगरचक्रवर्ती के साठ हजार (६०,०००) पुत्र थे। उनमें ज्येष्ठ पुत्र जहनु था। उसके नेतृत्व में सगरचक्रवर्ती के साठ हजार पुत्रों ने श्री अष्टापद पर्वत के चारों ओर तीर्थरक्षा के लिये खाई खुदवाई, और उसमें परिश्रमपूर्वक गंगानदी को प्रवाहित किया। इसलिये गंगानदी का नाम जाह्नवी पड़ा। श्रीअष्टापद पर्वत की तलहटी के नीचे भू-भाग में नागकुमारों के भवन थे, जो खाई खोदने और उसमें गंगा नदी का जल भरने के कारण विनष्ट हो गये। नागकुमारों ने अत्यन्त कुपित होकर सगरचक्रवर्ती के साठ हजार पुत्रों को विष-ज्वाला से भस्म कर दिया। इस तीर्थ की भक्ति-सेवा करने के कारण ही सगरचक्रवर्ती के वे पुत्र बारहवें अच्युतदेवलोक में देवरूप से उत्पन्न हुए। चरम तीर्थंकर श्रमण भगवान् महावीर परमात्मा ने इस अष्टापद तीर्थ की महिमा का वर्णन करते हुए कहा है कि 'जो मनुष्य अपनी आत्मशक्ति द्वारा श्रीअष्टापद पर्वत पर पहुँचता है, वह व्यक्ति इसी भव में इसी जन्म में ही अवश्यमेव मोक्ष को प्राप्त करता है।' सर्वज्ञविभु श्री महावीर परमात्मा के प्रथम गणधर अनंतलब्धि करने वाले श्री गौतम स्वामीजी महाराज सूर्य-रश्मि के आलम्बन द्वारा, अपनी अलौकिक शक्ति से श्री अष्टापद तीर्थ के अष्ट सोपान-पगथियों को स्पर्श किये बिना ही श्रीअष्टापद पर्वत पर पहुँचे। वहाँ बने हुए सिंहनिषद्या नामक जिनप्रासाद-जिनमन्दिर में जाकर, श्री जगचिन्तामणि चैत्यवन्दन-स्तोत्र की स्वयं रचना कर, चौबीस जिनमूर्तियों के दर्शन-वन्दनादि द्वारा भक्तिपूर्वक भावपूजा की। बाद में नीचे आकर श्री अष्टापद तीर्थ के सोपान-पगथियों पर भिन्न-भिन्न चौरासी आसनों में स्थिर रहे हए ऐसे पन्द्रह सौ तीन (१५०३) तापसों को प्रतिबोधित कर, तथा संयममार्ग में लाकर सभी को अपनी अनन्तलब्धि द्वारा क्षीरास्रवी लब्धि से एक छोटे काष्ठ के पात्र में अपने दाहिने हाथ के अंगूठे द्वारा क्षीर का स्पर्श कर पन्द्रह सौ तीन तापसों को क्षीर (खीर) द्वारा पारणा करवाया। यह प्रसंग श्री अष्टापदपर्वत-तीर्थ की तलहटी में हुआ। लंकाधिपति रावण अपनी पटराणी मन्दोदरी के साथ इसी श्री अष्टापदजी तीर्थ के जिनमन्दिर में भगवान् के सन्मुख भक्तिभावपूर्वक संगीत-नृत्य में मग्न बना। रावण वीणा बजा रहा है। संगीत चल रहा है और मन्दोदरी नृत्य कर रही है। बीच में वीणा के तार के टूटने की परवाह नहीं करते हुए उसी समय रावण ने अपने हाथ की नस के साथ उसका अनुसन्धान किया। जिससे प्रभुभक्ति में अंश मात्र भी ओंच/ व्यवधान नहीं आने दिया। प्रभुभक्ति में अतिमग्न-लीन बने हुए रावण ने भविष्य में तीर्थङ्कर पद प्राप्त करने हेतु तीर्थङ्कर नामकर्म उपार्जन किया। ऐसे अनेक उदाहरण इस तीर्थ के सम्बन्ध में मिलते हैं। * श्री शत्रुजय से अष्टापद का अन्तर : श्री शत्रुजय-सिद्धाचल तीर्थ से श्री अष्टापदजी तीर्थ का अन्तर प्रायः एक लाख और पचासी हजार गाऊ का है। इसके विषय में श्री दीपविजयजी कृत अष्टापदजी की पूजा के अन्तर्गत जलपूजा में कहा है कि- 115 Shri Ashtapad Tirth
SR No.009855
Book TitleAshtapad Maha Tirth 01 Page 088 to 176
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajnikant Shah, Kumarpal Desai
PublisherUSA Jain Center America NY
Publication Year2011
Total Pages89
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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