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________________ ॥ श्री अष्टापद तीर्थ ॥ पूर्वाचार्य विश्व में जैनधर्म के प्राचीन-अर्वाचीन अनेक तीर्थ हैं। उनमें श्रीशत्रुजयादि पाँच तीर्थों की महिमा विशेष अधिकतर है। इसलिये तो कहा है कि - आबू-अष्टापद-गिरनार, सम्मेतशिखर शत्रुजय सार। ए पाँचे उत्तम ठाम, सिद्धि गया तेने करूं प्रणाम ॥१॥ श्री अष्टापदतीर्थ - अष्टापद पर्वत इस अवसर्पिणी काल में प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव प्रभुकालीन अयोध्या नगरी की उत्तरदिशा में स्थित था। श्रीऋषभदेव भगवान् का निर्वाण यानी मोक्ष इस अष्टापद पर्वत पर हुआ था। श्री ऋषभदेव भगवान् के प्रथम पुत्र श्री भरतचक्रवर्ती ने उनके निर्वाण-मोक्षस्थल पर ही सिंहनिषद्या नामक मणिमय एक विशालकाय भव्य जिनप्रासाद-जिनमन्दिर बनवाया था। तीन कोस ऊँचे और एक योजन विस्तृत ऐसे उस जिनप्रासाद में स्वर्ग के मण्डप जैसे मण्डप, उसके भीतर पीठिका, देवच्छन्दिका तथा वेदिका का भी निर्माण करवाया। उत्तम पीठिका के कमलासन पर आसीन अशोक वृक्षादि आठ प्रातिहार्य युक्त देह-शरीर-लाञ्छन सहित तद्-तद् वर्ण वाली वर्तमानकालीन चौबीस तीर्थंकर भगवन्तों की मणि-रत्नों की भव्य मूर्तियाँ-प्रतिमायें बिराजमान की। तदुपरान्त इस प्रासाद-चैत्य में श्री भरतचक्रवर्ती (महाराजा) ने अपने पूर्वजों, भाईयों तथा बहिनों की विनम्र भाव से सान्नद भक्ति प्रदर्शित करते हुए स्वयं की मूर्ति भी बनवाई। इस विशालकाय सिंहनिषद्या-जिनप्रासाद के चारों तरफ चैत्यवृक्ष-कल्पवृक्ष-सरोवर-कूप-बावड़ियाँ और मठ भी बनवाये। इस अनुपम अष्टापद तीर्थ की रक्षा के लिये अपने दण्डरत्न के द्वारा एक-एक योजन की दूरी पर आठ पेढ़ियाँ बनवाईं। अर्थात् आठ सोपान-पगथिये बनवाये। जिससे यह प्रथम तीर्थ अष्टापद के नाम से विश्व में प्रख्यात हुआ। लोक के इस अनुपम आद्य जिनप्रासाद-जिनालय में प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव-आदिनाथ भगवान् से लेकर चौबीसवें चरम तीर्थंकर श्रमण भगवन्त श्री महावीर स्वामी तक चौबीस तीर्थंकरों की महामंगलकारी प्रतिष्ठा करवा कर, श्री भरतचक्रवर्ती (महाराजा) ने भक्तिभावपूर्वक उत्तम आराधना, अर्चना एवं वन्दना की। अन्त में, संयम साधना द्वारा आरीसा भवन में केवलज्ञान प्राप्त कर वे मोक्ष के अनन्त सुख के भागी बने। तथा सादि अनन्त स्थिति में स्थिर रहे। Shri Ashtapad Tirth, (Bharat & Rushabdev) Vol. I Ch. 1-F, Shri Ashtapad Tirth - - 114 Pg. 075-083 -
SR No.009855
Book TitleAshtapad Maha Tirth 01 Page 088 to 176
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajnikant Shah, Kumarpal Desai
PublisherUSA Jain Center America NY
Publication Year2011
Total Pages89
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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