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________________ Shri Ashtapad Maha Tirth - २५०. 'एव ण्हं'३६ थोऊणं, काऊण पयाहिणं च तिक्खुत्तो। आपुच्छिऊण पितरं, विणीतनगरिं अह पविठ्ठो।। इस प्रकार मरीचि की स्तवना कर, तीन बार प्रदक्षिणा कर भरत पिता ऋषभ से पूछकर विनीता नगरी में प्रवेश कर गया। २५१ तव्वयणं३८ सोऊणं, तिवई अप्फोडिऊण तिक्खुत्तो। अब्भहियजातहरिसो, तत्थ मरीई इमं भणति।। २५२. जइ वासुदेव० पढमो, 'मूयाइ विदेह'४१ चक्कवट्टित्तं। चरमो २ तित्थगराणं, 'होउ अलं एत्तियं मज्झ३।। २५३. अहगं च दसाराणं, पिता य मे चक्कवट्टिवंसस्स। अज्जो तित्थगराणं, अहो कुलं उत्तम मज्झ'४।। भरत के वचनों को सुनकर तीन बार पैरों को आस्फोटिक कर अथवा अपनी साथल पर तीन बार ताल ठोककर, अत्यधिक प्रसन्न होकर मरीचि बोला- 'यदि मैं प्रथम वासुदेव, विदेह की मूका नगरी में चक्रवर्ती और इस भारतवर्ष में चरम तीर्थङ्कर बनूँगा तो मेरे लिए इतना पर्याप्त है। मैं प्रथम वासुदेव, मेरे पिता प्रथम चक्रवर्ती और मेरे पितामह ऋषभ प्रथम तीर्थङ्कर हैं- अहो ! मेरा कुल उत्तम है।' २५४. अह भगवं भवमहणो, 'पुव्वाणमणूणगं सतसहस्सं५ । अणुपुव्वि५६ विहरिऊणं, पत्तो अट्ठावयं सेलं ॥ भव को मथने वाले भगवान् ऋषभ एक लाख पूर्व तक ग्रामानुग्राम विहरण करते हुए अष्टापद पर्वत पर पहुंचे। २५५. अट्ठावयम्मि सेले, चउदसभत्तेण सो महरिसीणं । दसहि सहस्सेहि समं, निव्वाणमणुत्तरं पत्तो८ ।। अष्टापद पर्वत पर महर्षि ऋषभ छह दिनों की तपस्या में दस हजार अनगारों के साथ अनुत्तर निर्वाण को प्राप्त हुए। उपरोक्त उल्लेख ऋषभदेव के निर्वाण स्थल अष्टापद की पूर्ति करते हैं। २५६. निव्वाण चितिगागिई:४९, जिणस्स इक्खाग सेसगाणं च । सकहा थूभ जिणघरे जायग तेणाहितग्गि त्ति। ३६. एहं पादपूत्यै दी. एहमिति निपातः पूरणार्थो वर्तते (मटी), एवन्नं (चू)। ३७. स्वो ३१२/१७७६।। ३८. तं वयणं (चू)। ३९. स्वो ३१३/१७७७। ४०. देवु (ब, रा, हा, दी)। ४१. मूयविदेहाए (स्वो), विदेहि (हा, दी) विदेहाइ (को)। ४२. चरिमो (म, स, ला)। ४३. स्वो ३१४/१७७८, अहो मए एत्तियं लद्धं (हाटीपा, मटीपा, लापा, अपा) ४४. स्वो ३१५/१७७९, इस गाथा के बाद अ, ब, ला प्रति में “जारिसया लोगगुरू (हाटीमूभा. ३८) इत्यादारभ्य अंतरा एकादशगाथा विहाय सर्वा अपि भाष्यगाथा संभाव्यते व्या" का उल्लेख मिलता है। जारिसया के बाद हाटी में ६३ नियुक्ति गाथाएँ तथा ५ भाष्य गाथाएँ हैं। बीच की कौन सी ११ गाथाएँ छोड़ें, यह आज स्पष्ट नहीं है। ४५. संपुण्णं पुव्वसतसहस्सं तु (स्वो, को)। ४६. सामण्णं (स्वो)। ४७. स्वो ३१६/१७८०। ४८. स्वो ३१७/१७८१ । ४९. व्वाण चितग आगिति (स्वो, को), णेव्वाण चितगा (ब, चू), चियगागि (स)। ५०. तु (अ, रा, को)। ५१. स्वो ३१८/१७८२, इस गाथा के बाद प्रायः सभी हस्तप्रतियों एवं टीकाओं में थूभसय... (को १७९६, स्वो १७८३, हाटीमूभा ४५) मूल भाष्य गाथा मिलती है। Aavashyak Niryukti -86 14
SR No.009854
Book TitleAshtapad Maha Tirth 01 Page 001 to 087
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajnikant Shah, Kumarpal Desai
PublisherUSA Jain Center America NY
Publication Year2011
Total Pages87
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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