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________________ Shri Ashtapad Maha Tirth सृष्टि का उत्पत्ति-क्रम है। भगवान् ऋषभदेव ने धर्म की संस्थापना की थी, तभी अनेकों मतों की उत्पत्ति हो चुकी थी। यद्यपि उस समय वे सब मत भिन्न होते हुए भी भगवान् ऋषभदेव को सर्वश्रेष्ठ समझते थे और स्वयं को कायर तथापि बाह्य वेष-भूषा और साध्वाचार में अन्तर आ जाने से उनका भगवान् से सीधा सम्बन्ध नहीं रहा। उनकी परम्परा वातरशना ऋषियों से सम्बन्धित रही होगी। श्रीमद्भागवतपुराण से भी इसी तथ्य की पुष्टि होती है, कि वातरशना श्रमण ऋषियों के धर्मों को प्रकट करने की इच्छा से ही भगवान् विष्णु नाभिराज की पत्नी मरुदेवी के गर्भ में अवतरित हुए। श्रीमद्भागवत के उक्त कथन में दो बातें विशेष महत्त्वपूर्ण हैं- प्रथम यह कि ऋषभदेव की मान्यता के सम्बन्ध में पुराण, वेद या जैन दर्शन के बीच कोई मतभेद नहीं है। जैनदर्शन यदि भगवान् ऋषभदेव को आदि तीर्थंकर के रूप में स्वीकार करता है तो वैदिक दर्शन भगवान् विष्णु के अवतार रूप में साक्षात् ईश्वर मानता है। द्वितीय बात जो अत्याधिक महत्त्वपूर्ण है, वह यह है कि पुराणकार ने इस अवतार को राम और कृष्ण के अवतारों से भी प्राचीन स्वीकार किया है। जैनदर्शन भी राम और कृष्ण से असंख्य वर्षों पूर्व भगवान् के जन्म को मान्यता देता है। भागवतकार ने भगवान् ऋषभ के नौ पुत्रों को भी वातरशना बताया है।४४ केशी मुनि भी वातरशना की श्रेणी के ही थे।४५ उक्त वातरशना मुनियों की जो मान्यताएँ एवं साधनाएँ वैदिक ऋचाओं में उपलब्ध होती हैं, उनसे श्रमण-निर्ग्रन्थों के साथ एकदम साम्यता प्रतीत होती है। वैदिक ऋषि वैसे त्यागी और तपस्वी नहीं होते जितने वातरशना मुनियों के त्याग का उल्लेख किया गया है। वैदिक ऋषि लौकिक कामनाओं की सम्पूर्तिहेतु यज्ञ-यागादि कर्म करके इन्द्रादि देवी-देवताओं को बुलाते हैं, पर वातरशना मुनि उक्त क्रियाओं से विरत होते थे, वे समस्त गृह, परिवार, पत्नी, धन-धान्यादि का परित्याग कर भिक्षावृत्ति से रहते थे, स्नानादि नहीं करते थे, मौनवृत्ति धारण कर केवल आत्म-ध्यान में तल्लीन रहते थे। वस्तुतः वातरशना मुनियों की यह शाखा श्रमण-परम्परा का ही प्राचीन रूप है। १२. केशी जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के अनुसार भगवान् ऋषभदेव जब श्रमण बने तो उन्होंने चार मुष्टि केशों का लोंच किया था। सामान्य रूप से पाँच मुष्टि केशलोंच की परम्परा है। भगवान् केशों का लोंच कर रहे थे; दोनों भागों के केशों का लोच करना अवशेष था। उस समय प्रथम देवलोक के इन्द्र शक्र ने भगवान् से निवेदन किया, कि इस सुन्दर केश-राशि को इतनी रहने दें। भगवान् ने इन्द्र की प्रार्थना से उन केशों को उसी प्रकार रहने दिया ।१६ यही कारण है, कि केश रखने से उनका एक नाम केशी या केशरियाजी हुआ। केशर, केश और जटा एक ही अर्थ के द्योतक हैं। 'सटा जटा केसरयोः' जैसे सिंह अपने केशों के कारण केशरी कहलाता है, वैसे ही भगवान् ऋषभ केशी, केशरी और केशरियानाथ के नाम से विश्रुत ४४ नवाभवन् महाभागा, मुनयो ह्यर्थशंसिनः। श्रमण वातरशना, आत्माविद्या विशारदाः ।। ४५ सायण भाष्य १०।१३५१७ ४६ चउहिं मुट्ठाहिं लोअं करेइ-मूल सूत्र "तीर्थकृतां पंचमुष्टिलोच सम्भवेऽवि अस्य भगवतश्चतुर्मुष्टिक लोच गोचरः श्री हेमाचार्यकृत ऋषभचरित्राद्यभिप्रायोऽयं प्रथममेकयामुष्टया श्मश्रुकूर्चयोलोंचे तिसृभिश्व शिरालोचे कृते एकां मुष्टिमवशिष्यमाणां पवनान्दोलितां कनकावदातयोः प्रभुस्कन्धयोरूपरि लुठन्ती मरकतोप-मानभमाविभुतीं परमरमणीयां वीक्ष्य प्रमोदमानेन शक्रेण भगवन् ! मय्यनुग्रहं विधाय घ्रियतामियमित्थमेवेति विज्ञप्ते मगवतापि सा तथैव रक्षितेति। न ह्ये कान्तमक्तानां याञ्चामनुग्रहीतारः खण्डयन्तीति।" -जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति वक्षस्कार २।३०।। Rushabhdev : Ek Parishilan - 258 -
SR No.009853
Book TitleAshtapad Maha Tirth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajnikant Shah, Kumarpal Desai
PublisherUSA Jain Center America NY
Publication Year2011
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size178 MB
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