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________________ Shri Ashtapad Maha Tirth दशम स्थान में दस आश्चर्यकारी बातों का वर्णन है, जो अनन्तकाल के बाद प्रस्तुत अवसर्पिणी काल में हुई थीं । इसमें एक आश्चर्य भगवान् ऋषभदेव के समय का माना जाता है, कि भगवान् ऋषभदेव के तीर्थ में उत्कृष्ट अवगाहना वाले १०८ मुनि एक साथ, एक ही समय में सिद्ध हुए थे। यहाँ पर इसलिए आश्चर्य माना गया है कि भगवान् ऋषभ के समय उत्कृष्ट अवगाहना थी। उत्कृष्ट अवगाहना में केवल एक साथ दो ही व्यक्ति सिद्ध हो सकते हैं।२२ प्रस्तुत सूत्र में एक सौ आठ व्यक्ति उत्कृष्ट अवगाहना में मुक्त हुए, अतः आश्चर्य है। आवश्यक नियुक्ति में ऋषभदेव के दस हजार व्यक्तियों के साथ सिद्ध होने का उल्लेख है।२३ उसका तात्पर्य यही है दस हजार अनगारों के एक ही नक्षत्र में सिद्ध होने के कारण उनका ऋषभदेव के साथ सिद्ध होना बताया है। एक समय में नहीं।२४ ३. समवायांगसूत्र - इसकी संकलना भी स्थानांग के समान ही हुई है। इसके अठारहवें समवाय में ब्राह्मीलिपि के लेखन के अठारह प्रकार बताये हैं। तेईसवें समवाय में ऋषभदेव को पूर्वभव में चौदह पूर्व के ज्ञाता तथा चक्रवर्ती सम्राट कहा है। चौबीसवें समवाय में ऋषभदेव का प्रथम देवाधिदेव के रूप में उल्लेख है। पच्चीसवें समवाय में प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्करों के पञ्च-महाव्रतों की पच्चीस भावनाओं का निरूपण है।२६ __ छियालिसवें समवाय में ब्राह्मीलिपि के छियालीस मातृकाक्षरों का उल्लेख है। वेसठवें समवाय में भगवान् ऋषभदेव का ६३ लाख पूर्व तक राज्य-पद भोगने का, सतहत्तरवें समवाय में भरत चक्रवर्ती के ७७ लाख पूर्व तक कुमारावस्था में रहने का, तिरासीवें समवाय में भगवान् ऋषभदेव एवं भरत के ८३ लाख पूर्व तक गृहस्थावस्था के काल का तथा चौरासीवें समवाय में ऋषभदेव, भरत, बाहुबली, ब्राह्मी एवं सुन्दरी की सर्वायु ८४ लाख पूर्व की स्थितिवर्णित की गई है। भगवान् के चौरासी हजार श्रमण थे। नवासीवें समवाय में अरिहंत कौशलिक श्री ऋषभदेव इस अवसर्पिणी के तृतीय सुषम-दुषम आरे के अन्तिम भाग में नवासी पक्ष शेष रहने पर निर्वाण को प्राप्त हुए; इसका उल्लेख है। तथा भगवान् ऋषभदेव और अन्तिम तीर्थङ्कर भगवान् महावीर का अव्यवहित अन्तर एक कोटाकोटि सागरोपम का वर्णित है। इनके अतिरिक्त उनके पूर्वभव का नाम, शिविका नाम, माता-पिता के नाम, सर्वप्रथम आह का नाम, प्रथम भिक्षा एवं संवत्सर में प्राप्त हुई-इसका उल्लेख, जिस वृक्ष के नीचे केवलज्ञान उत्पन्न हुआ वह (न्यग्रोध) वृक्ष की (तीन कोस) ऊँचाई, प्रथम शिष्य, प्रथम शिष्या, भरत चक्रवर्ती और उनके माता-पिता तथा स्त्रीरत्न का नामोल्लेख इस अंग में किया गया है। ४. भगवतीसूत्र भगवतीसूत्र आगम-साहित्य में सर्वाधिक विशालकाय ग्रन्थरत्न है। इसमें अनेक विषयों पर तलस्पर्शी चर्चाएँ की गई हैं। भगवान् ऋषभदेव से सम्बन्धित वर्णन इसमें यत्र-तत्र ही देखने को मिलता है। सर्वप्रथम इसमें मंगलाचरण के रूप में 'ब्राह्मीलिपि' को नमस्कार किया गया है। २२ उत्तराध्ययन ३६। ५३ २३ आवश्यक नियुक्ति गा. ३११ २४ देखिए- लेखक का 'जैन आगमों में आश्चर्य' लेख । २५ ठाणांग, समवायांगः सम्पादक- दलसुख मालवणिया, अहमदाबाद, सन् १९५५। २६ समवायांगसूत्र, २५ वां समवाय । २७ भगवतीसूत्र २०।८।६९, अंगसुत्ताणि भाग २, भगवई- जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) । Rushabhdev : Ek Parishilan . -15 2280
SR No.009853
Book TitleAshtapad Maha Tirth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajnikant Shah, Kumarpal Desai
PublisherUSA Jain Center America NY
Publication Year2011
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size178 MB
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