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________________ Shri Ashtapad Maha Tirth ऋषभदेव को देखा तो सोचने लगी- मैं तो सोचती थी कि मेरा पुत्र कष्टों में होगा लेकिन वह तो अनिर्वचनीय आनन्दसागर में झूल रहा है। इस प्रकार विचार करते करते उनके चिन्तन का प्रवाह बदल गया वे आर्तध्यान से शुक्ल ध्यान में आरूढ़ हुईं और कुछ ही क्षणों में ज्ञान, दर्शन, अन्तराय और मोह के बन्धन को दूर कर केवल ज्ञानी बन गयीं और गजारूड़ स्थिति में ही वे मुक्त हो गईं। इस सन्दर्भ में त्रिषष्टिशलाका पुरूष चरित्र में लिखा है करिस्कन्धाधिरूढैव, स्वामिनि मरूदेव्यथ । अन्तकृत्केवलित्वेन, प्रवेदे पदमव्ययम् ।। -त्रिषष्टि श. पु. चरित्रम् १।३।५३० आवश्यक चूर्णिकार के अनुसार क्षत्र भायण्डादि अतिशय देखकर मरूदेवी को केवलज्ञान हुआ। आयु का अवसानकाल सन्निकट होने के कारण कुछ ही समय में शेष चार अघाती कर्मों को समूल नष्टकर गजारूढ़ स्थिति में सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गई। भगवतो य छत्तारिच्छतं पेच्छंतीए चेव केवलनाणं उप्पन्नं, तं समयं च णं आयुं खुढे सिद्ध देवेहिं य से पूया कता.....। -आवश्यक चूर्णि (जिनदास), पृ. १८१ इस प्रकार इस अवसर्पिणी काल में सिद्ध होने वाले जीवों में माता मरूदेवी का प्रथम स्थान है। -आचार्य हस्तीमल जी महाराज-जैन धर्म का इतिहास आवश्यक नियुक्ति में उल्लेख है कि- भगवान् ऋषभदेव की फाल्गुन कृष्णा एकादशी के दिन प्रथम देशना हुई। फग्गुणबहुले इक्कारसीई अह अट्ठमणभत्तेण। उप्पत्रंमि अणंते महव्वया पंच पन्नवए।। -आवश्यक नियुक्ति गाथा- ३४० फाल्गुन कृष्णा एकादशी के दिन शुद्ध एवं चारित्र धर्म का निरूपण करते हुए रात्रि भोजन विमरण सहित पंचमहाव्रत धर्म का उपदेश दिया। तत्पश्चात् साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका रूपी धर्म तीर्थ की स्थापना कर भगवान् प्रथम तीर्थंकर बने। उनके उपदेशों को सुनकर भरत के ५०० पुत्र और ७०० पौत्र दीक्षा लेकर साधु बने और ब्राह्मी आदि ५०० स्त्रियाँ साध्वी बनीं। ऋषभसेन ने भगवान् के पास प्रव्रज्या ग्रहण की और १४ पूर्व का ज्ञान प्राप्त किया। भगवान् के ८४ गणधर हुए जिनमें ऋषभसेन पहले गणधर बने। कहीं-कहीं पुण्डरिक नाम का उल्लेख भी मिलता है परन्तु समवायांग सूत्र में ऋषभसेन नाम का उल्लेख है। आवश्यक चूर्णी में भी ऋषभसेन नाम का ही उल्लेख मिलता है। तत्थ उसभसेणो णाम भरहस्स रन्नो पुत्तो सो धम्म सोऊण पव्वइतो तेण तिहिं पुच्छाहिं चोद्दसपुव्वाइं गहिताईं उप्पन्ने विगते धुते, तत्थ बम्भीवि पव्वइया। -आ. चूर्णि पृ. १८२ भगवान् ऋषभदेव द्वारा स्थापित किये गये धर्म तीर्थ की शरण में आकर अनादिकाल से जन्म-मरण के चक्र में फँसे अनेकानेक भव्य प्राणियों ने आठों कर्मों को क्षय करके मुक्ति प्राप्त की। भगवान् ऋषभदेव ने एक ऐसी सुखद सुन्दर मानव संस्कृति का आरम्भ किया जो सह अस्तित्व, विश्व-बन्धुत्व और लोक कल्याण आदि गुणों से ओत-प्रोत और प्राणि मात्र के लिये सांसारिक और आध्यात्मिक दोनों क्षेत्रों में कल्याणकारी थी। -36 179 - Adinath Rishabhdev and Ashtapad
SR No.009853
Book TitleAshtapad Maha Tirth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajnikant Shah, Kumarpal Desai
PublisherUSA Jain Center America NY
Publication Year2011
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size178 MB
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