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________________ Shri Ashtapad Maha Tirth. णं दीसह ससिरविबिंबच्छिहि, कंठभट्ट कंठिय णलच्छिहि । मोहबद्धणवपेम्महिरी विव सम्ग सरोवहु णालसिरी विव रयणसमुज्जलवरगयपंति व दाणमहातरूहलसंपत्ति व । सेयंसह घणपण णिउंजिय, उक्कहिं उडमाला इव पंजिय । पूरियसंवच्छर उव्वासें, अक्खवाणु मणिउं परमेसें । तहु दिवस अत्येण अक्खवतइय गाउं संजायउ । घरू जायवि भरहें अहिणंदिउ, पढ़मु दाणतित्थंकरू वंदिउ । अहियं पक्ख तिण्ण सविसेसें, किंचूणे दिण कहिय जिणेसें, भोयणवित्ती लहीय तमणासे, दाणतित्थु घोसिउ देवीसें । महाकवि पुष्पदन्त ने स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि ज्यों ही श्रेयांसकुमार ने अपने राजप्रासाद में भगवान् ऋषभदेव को इक्षुरस से पारणा करवाया त्यों ही दुन्दुभियों के घोष से दशों दिशाएँ पूरित हो गईं। देवों ने 'अहो दानम् अहो दानम्' एवं 'साधु साधु' के निर्घोष पुनः पुनः किये। श्रेयांस के प्रासाद के प्रांगण में दिव्य वसुधारा की ऐसी प्रबल वृष्टि हुई कि चारों ओर रत्नों की विशाल राशि दृष्टिगोचर होने लगी । प्रभु का संवत्सर प पूर्ण हुआ और कुछ दिन कम साढ़े तेरह मास के पश्चात् भोजन वृत्ति प्राप्त होने पर भगवान् ने प्रथम प पारणा किया। इस दान को अक्षयदान की संज्ञा दी गई। उसी दिन से प्रभु के पारणे के दिन का नाम अक्षय तृतीया प्रचलित हुआ । भरत चक्रवर्ती ने श्रेयांसकुमार के घर जाकर उनका अभिनन्दन एवं सम्मान करते हुए कहा, वत्स ! तुम इस अवसर्पिणीकाल के दानतीर्थ के प्रथम संस्थापक हो, अतः तुम्हें प्रणाम है । इन सब उल्लेखों से यह सिद्ध होता है कि यह मान्यता प्राचीनकाल से चली आ रही है कि भगवान् ऋषभदेव का प्रथम पारणा अक्षय तृतीय के दिन हुआ था । अक्षय तृतीय का पर्व प्रभु के प्रथम पारणे के समय श्रेयांसकुमार द्वारा दिये गये प्रथम अक्षय दान से सम्बन्धित है। वाचस्पत्यभिधान के श्लोक में भी अक्षय तृतीया को दान का उल्लेख मिलता है। वैशाखमासि राजेन्द्र शुक्लपक्षे तृतीयका । अक्षया सा तिथि प्रोक्ता कृतिकारोहिणीयुता ।। तस्यां वानादिकं सर्वमक्षयं समुदाहृतम् ।.......... प्रव्रज्या ग्रहण करने के १००० वर्ष तक विचरने के बाद ऋषभदेव पुरिमताल नगर के बाहर शकट मुख नामक उद्यान में आये और फाल्गुन कृष्णा एकादशी के दिन अष्टम तप के साथ दिन के पूर्व भाग में, उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में प्रभु को एक वट वृक्ष के नीचे केवलज्ञान प्राप्त हुआ । केवलज्ञान द्वारा ज्ञान की पूर्ण ज्योति प्राप्त कर लेने के पश्चात् समवसरण में प्रभु ने प्रथम देशना दी। समवसरण का अर्थ अभिधान राजेन्द्र कोश के अनुसार “सम्यग् एकीभावेन अवसरणमेकत्र गमनं मेलापकः समवसरणम्” अर्थात् अच्छी तरह से एक स्थान पर मिलना, साधु-साध्वी आदि संघ का एक संग मिलना एवं व्याख्यान सभा समवसरण की रचना के विषय में जैन शास्त्रों में उल्लेख है कि वहाँ देवेन्द्र स्वयं आते हैं तथा तीन प्राकारों वाले समवसरण की रचना करते हैं जिसकी एक निश्चित विधि होती है । माता मरूदेवी अपने पुत्र ऋषभदेव के दर्शन हेतु व्याकुल हो रही थी । प्रव्रज्या के बाद अपने प्रिय पुत्र को एक बार भी नहीं देख पायी थी । भगवान् ऋषभदेव को केवलज्ञान प्राप्त होने का शुभ संदेश जब सम्राट भरत ने सुना तो वे मरूदेवी को लेकर ऋषभदेव के पास जाते हैं। समवसरण में पहुँचकर माता मरूदेबी ने जब Adinath Rishabhdev and Ashtapad as 178 a
SR No.009853
Book TitleAshtapad Maha Tirth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajnikant Shah, Kumarpal Desai
PublisherUSA Jain Center America NY
Publication Year2011
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size178 MB
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