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________________ बिल्ली बोली - 'केवल दुर्बलोंकी ही बलि दी जाया करती है ।' चौथे गुलामने सबको चुप करके धीमेसे ताज उठाया और बिना उसे जगाये, बूढ़ी रानीके सिरपर रख दिया । बिल्ली बोली, 'सिर्फ़ गुलाम ही गिरे हुए ताजको फिर उठाकर रखता है !' कुछ देर बाद रानी जगी, अपने चारों तरफ़ देखा और जम्हाई ली । तब बोली - 'मैं सपना-सा देख रही थी, कि किसी पुराने शाहबलूतके पेड़के तने पर चार केंचुए जा रहे हैं और एक बिच्छू उनके पीछे चक्कर काट रहा है । मुझे अपना सपना अच्छा नहीं लगा ।' उसने आँखें बन्द कर लीं और फिर सो गई और खुर्राटे भरने लगी और गुलाम उसे पंखा झलते रहे । बिल्ली बोली - 'झले जाओ, झले जाओ, अहमक़ो । तुम उस आगको पंखा झल रहे हो जो तुम्हें भस्म कर रही है ।' न्यायाधीश दिल्लीका बादशाह गयासुद्दीन मुहम्मद एक बार तीरन्दाजीकी मश्क़ कर रहा था कि एक तीर किसी लड़केको लगा और वह मर गया ! लड़केकी माँने क़ाज़ीके यहाँ फ़रियाद की । क़ाज़ीने हुक्म निकाल दिया कि बादशाह एक मुजरिमके तौरपर अदालत में हाज़िर हों । बादशाह अदालत में हाज़िर हुआ और मुजरिमके कठघरेमें खड़ा कर दिया गया । क़ाज़ी —— इस शिकायत के खिलाफ़ तुम्हें कुछ कहना है ?" बादशाह - 'नहीं । मैं अपना जुर्म क़बूल करता हूँ । और मुआवज़ेके तौर पर अपनी जान तक देनेके लिए तैयार हूँ ।' सन्त-विनोद ६७
SR No.009848
Book TitleSant Vinod
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarayan Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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