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________________ एक शाम एक सिलबिल आदमी वहाँ आया। उसने उस लिखावटको कोलतारसे पोत कर लिखा-'इस पुलके पत्थरोंको गधे ढोकर लाये थे। वे ही इसके बनानेवाले हैं। इस पुलपर चलनेवाले उन्हींका आभार मानें।' ___ लोगोंने जब यह पढ़ा तो कोई कहकहे लगाने लगे, कोई ताज्जुब करने लगे, कोई लिखनेवालेको खब्ती बताने लगे। लेकिन एक गधा, हंसकर, दूसरेसे बोला-'तुम्हें याद है न कि पत्थरोंको तो हमीं लाये थे। फिर भी अब तक यही कहा जाता रहा कि इस पुलको नवाब यूसुफ़यारजंगने बनवाया।' पागल एक पागलखानेके बाग़में मुझे एक युवक मिला जिसके खूबसूरत और जर्द चहरेसे हैरतके आसार नुमायाँ थे । __मैं बेंचपर उसके पास बैठ गया और उससे पूछा-'आप यहाँ कैसे आये ? उसने मुझे साश्चर्य देखा, और बोला-'यह एक अशोभन प्रश्न है, फिर भी मैं इसका जवाब देता हूँ। मेरे पिता मुझे अपनी प्रतिमूर्ति बनाना चाहते थे; मेरे चाचा भी। मेरी मां मुझे अपने मशहूर पिताके समान बनाना चाहती थी। मेरी बहन चाहती थी कि मैं उसके जहाज़ी पतिके पूर्ण आदर्शका अनुगमन करूं। मेरे भाईका ख्याल है कि मैं उस जैसा अच्छा पहलवान बनूँ । मेरे शिक्षक-दर्शनशास्त्री, संगीताचार्य, तर्कतीर्थ-भी निश्चित-मत थे कि मैं हूबहू उनके मानिन्द ही बनें। - इसलिए मैं इस जगह चला आया। यहां जरा समझदारीका वातावरण है । यहां कमसे कम, मैं अपनेपनमें तो रह सकता हूँ।' सन्त-विनोद
SR No.009848
Book TitleSant Vinod
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarayan Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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