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________________ ४ आनन्द न्यायमूर्ति रानाडेको क़लमी आम बहुत पसन्द थे । एक बार आमोंकी टोकरी आई । रमाबाईने आम काटकर न्यायमूर्ति के सामने तश्तरी में रखे । उन्होंने उनमेंसे एक-दो फाँक खाई । कुछ देर बाद रमाबाईने आकर देखा तो आमकी फाँकें रखी हुई हैं । उन्हें अच्छा नहीं लगा । वे बोलीं'आपको आम पसन्द हैं, इसलिए मैं इन्हें काटकर लाई । आप खाते क्यों नहीं ?' --- रानाडे बोले - 'आम अच्छे लगते हैं इसके क्या ये मानी है कि आम ही खाता रहूँ । एक फाँक खा ली । जीवनमें दूसरे आनन्द भी तो हैं ।' सात अवसर सात मौक़ोंपर मैंने अपनेको क्षुद्र बनते देखा - १. जब मैं आदमीके आगे नम्र रंक बना, इस आशासे कि इससे दुनिया में बुलन्दी मर्तबा हासिल करूंगा । २. जब मैं कमज़ोरोके सामने घमंडसे अकड़ कर चलने लगा । मानो मेरी शक्ति मेरे विकासका एक अंश न होकर दुर्बलोंपर रौब जमानेका एक ज़रिया हो । ३. कठिनाइयोंसे भरे कर्तव्य-क्षेत्र और सुगम सस्ते सुखमेसे एकको चुनने का अवसर आनेपर जब मैने सरलता से मिलनेवाला सस्ता सुख चुना । ४. जब मैने अपराध करके उसका पश्चात्ताप और परिमार्जन करने के बजाय उसका समर्थन करते हुए कहा - 'ऐसा तो चला ही करता है । दूसरे भी तो यही करते हैं ।' सन्त-विनोद ५७
SR No.009848
Book TitleSant Vinod
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarayan Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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