SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 138
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ और बिलख कर कहने लगा- 'इससे तो मोत आ जाती तो अच्छा था !' उसका यह चाहना था कि मौत आकर खड़ी हो गई ! 'मैं हाज़िर हूँ। बता तूने मुझे क्यों याद किया है ?" मौत को देखकर बूढ़ा भयसे थर-थर काँपने लगा । बोला- 'मैंने तुझे सिर्फ़ इसलिए बुलाया है कि यह बोझा उठाकर मेरे सिरपर रख दे ।' अहंकार भरत चक्रवर्ती छह खण्ड जीतकर जब वृपभाचल पर्वतपर अपना नाम लिसने गये, तब उन्हें अभिमान हुआ कि मैं ही ऐसा चक्रवर्ती हुआ हूँ जिसका इस पर्वतपर नाम रहेगा । लेकिन पहाड़पर पहुँचने पर उन्होंने देखा कि वहाँ तो उनसे पहले बेशुमार चक्रवर्ती आ-आकर अपना नाम लिख गये हैं । नया नाम लिखनेको जगह तक न थी । यह देखकर उनका गर्व खर्व हो गया । आखिर एक नाम मिटाकर अपना नाम लिखा । दीक्षा एक बालक एक धर्मगुरुके पास दीक्षा लेने गया । गुरुने इसके लिए उसके पिता की अनुमति चाही । बालकने माँसे आकर कहा - ' माँ अपने स्वेच्छाचारी जीवनको छोड़ चुकी थी और अपने पुत्रका भी कल्याण चाहती थी । बोली- 'बेटा, उनसे कहना कि मेरे पिताका नाम तो मेरी माँको भी नहीं मालूम । बालकने माँका सन्देश गुरुको सुना दिया । गुरुने उसकी माँकी सत्यवादिता से प्रभावित होकर सहर्ष दीक्षा दे दी । एक वेश्या-पुत्र को दीक्षा देनेके कारण गुरुकी आलोचनाएँ होने लगीं । सन्त-विनोद १२८
SR No.009848
Book TitleSant Vinod
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarayan Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy