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________________ दिखला कर यह कहलाना चाहा कि उससे बढ़ कर दुनियामें और कोई सुखी नहीं है। पर सोलनके दिलपर उसके वैभवका कोई असर नहीं पड़ा। उसने सिर्फ यही कहा कि, 'संसारमें सुखी वही कहा जा सकता है जिसका अन्त सुखमय हो ।' कारू को इससे नागवार खातिर हुआ और उसने सोलनको बिना किसी सत्कारके अपने यहाँसे विदा कर दिया। कालान्तरमें कारूँने पारसके राजा साइरसपर चढ़ाई कर दी। वहाँ वह हार कर गिरफ़्तार हो गया। साइरसने उसे जिन्दा जला दिये जानेका हुक्म दे दिया। उस वक़्त उसे सोलन याद आया। वह 'सोलन ! सोलन ! सोलन !' चिल्लाने लगा। जब साइरसने इसका तात्पर्य पूछा तो उसने सोलनकी बातें सुना दीं। इसका साइरसपर बड़ा प्रभाव पड़ा। उसने कारूँको छोड़ दिया। महल एक मस्त फ़क़ोर एक महल में घुस गया और इत्मीनानसे आराम करने लगा। बादशाह आया। उसने फ़क़ीरसे झिड़क कर पूछा'तुम यहाँ किसकी इजाज़तसे आये ?' 'धर्मशालामें आनेके लिए किसीको इजाज़तकी ज़रूरत होती है क्या ?' फ़क़ीर बोला। 'यह धर्मशाला नहीं, मेरा महल है !' 'अच्छा, तुमसे पहले यहाँ कौन रहता था ?' 'मेरे पिता।' 'उनसे पहले ?' 'उनके पिता।' 'वह मकान जिसमें एकके बाद दूसरा आता है और चला जाता है वह धर्मशाला नहीं तो क्या है ?' सन्त-विनोद
SR No.009848
Book TitleSant Vinod
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarayan Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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