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________________ महानिशीथ-५/-1८१६ में उस दुष्ट शीलवाले शिष्य अज्ञानपन की कारण से अति असंयम सेवन करेंगे वो सर्व असंयम मुझे लगेंगे, क्योंकि मैं उनका गुरु हूँ । इसलिए मैं उनके पीछे जाकर उन्हें प्रेरणा देता हूँ कि जिससे इस असंयम के विषय में मैं प्रायश्चित् का अधिकारी न बनें । ऐसा विकल्प करके वो आचार्य उनके पीछे जितने में गए उतने में तो उन्हें असंयम से और बूरी तरह अविधि से जाते देखा । तब हे गौतम ! अति सुन्दर, मधुर शब्द के आलापपूर्वक गच्छाधिपति ने कहा कि अरे, उत्तम कुल और निर्मल वंश के आभूषण समान कुछ-कुछ महासत्त्ववाले साधु । तुमने उन्मार्ग पाया है, पाँच महाव्रत अंगीकार किए गए देहवाले महाभागशाली साधु-साध्वी के लिए सत्ताईश हजार स्थडील स्थान सर्वज्ञ भगवंत ने प्ररूपे है | श्रुत के उपयोगवाले को उसकी विशुद्धि जांचनी चाहिए, लेकिन अन्य में उपयोगवाला न बनना चाहिए । तो तुम शुन्याशुन्य चित्त से अनुपयोग से क्यों चल रहे हो ? तुम्हारी ईच्छा से तुम उसमें उपयोग दो । दुसरा यह कि तुम यह सूत्र और उसका अर्थ भूल गए हो क्या ? सर्व परम तत्त्व के परमसारभूत तरह का यह सूत्र है । एक साधु एक दो इन्द्रियवाले जानवर को खुद ही हाथ से या पाँव से या दूसरों के पास या शलाका आदि अधिकरण से किसी भी पदार्थभूत उपकरण से संघट्टा करे, करवाए या संघट्टा करनेवाले को सही माने, उससे बाँधा गया कर्म जब उदय में आए तब जैसे यंत्र में इख पिसते है वैसे उस कर्म का क्षय हो, यदि गहरे परीणाम से कर्म बाँधा हो तो पापकर्म बारह साल तक भुगते तब वो कर्म खपाए, गहरा परितापन करे तो दश हजार साल तक, उस प्रकार आगाढ़ कीलामणा करे तो दश लाख साल के बाद वो पाप कर्म खपाए और उपद्रव करे यानि मौत के अलावा सारे दुःख दे । वैसा करने से करोड़ साल दुःख भूगतकर पाप-कर्म क्षय कर शकते है । उसी प्रकार तीन इन्द्रियवाले जीव के बारे में भी समझना । तुम इतना समज शकते हो इसलिए घबराना मत । हे गौतम ! उसी प्रकार सूत्रानुसार आचार्य सारणा करने के बावजूद भी महा पापकर्मी, चलने की व्याकुलता में एक साथ सब उतावले होकर वो सर्व पाप कर्म ऐसे आँठ कर्म के दुःख से मुक्त करनेवाला ऐसा आचार्य का वचन बहुमान्य नहीं करते । तब हे गौतम ! वो आचार्य समज गए कि जुरुर यह शिष्य उन्मार्ग में प्रयाण कर रहे है, सर्व तरह से पापजातिवाले और मेरे दुष्ट शिष्य है, तो अब मुजे उनके पीछे क्यों खुशामत के शब्द बोलते-बोलते अनुसरण करूँ ? या तो जल रहित सूखी नदी के प्रवाह में बहना जैसा है । यह सब भले ही दश द्वार से चले जाए, मैं तो अब मेरे आत्मा के हित की साधना करूँगा । दुसरे किए हुए काफी बड़े पुण्य के समूह से मेरा अल्प भी रक्षण होगा क्या ? आगम में बताए तप और अनुष्ठान के द्वारा अपने पराक्रम से ही यह भव सागर पार कर शकेंगे । तीर्थंकर भगवंत का यही आदेश है। [८१७] या आत्महित करना और यदि मुमकीन हो तो परहित भी जुरुर करना । आत्महित और परहित दोनों करने का समय हो तो पहले आत्महित की साधना करनी चाहिए। [८१८] दुसरा यह शिष्य शायद तप और संयम की क्रिया का आचरण करेंगे तो उससे उनका ही श्रेय होगा और यदि नहीं करेंगे तो उन्हें ही अनुत्तर दुर्गति गमन करना पड़ेगा । फिर भी मुझे गच्छ समर्पण हुआ है, मैं गच्छाधिपति हूँ मुजे उनको सही रास्ता दिखाना चाहिए । और फिर दुसरी बात यह ध्यान में रखनी है कि - तीर्थंकर भगवंत ने आचार्य के छत्तीस गुण
SR No.009789
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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