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________________ महानिशीथ-४/-/६७८ २३ कि जहाँ पहले बताए चक्की आकार के वज्र की शीला के संपुट है । जितने में खाद्य की लालच से वो जितनी भूमि तक आते है उतने में ही जो पास के वज्रशिला के संपुट का अग्र हिस्सा जो बगासा खाते पुरुष के आकार समान छूटा पहले से ही रखा होता है । वहीं मध, मदिरा से भरे बाकी रहे कईं तुंब उनकी आँख के सामने हो वहाँ रखकर अपनी-अपनी जगह में चले जाते है । वो मद्य-मदिरा खाने के लोलुपी जितने में चक्की के पास पहुँचे और उस पर प्रवेश करे उस समय हे गौतम जो पहले पकाए हुए माँस के टुकड़े वहाँ रखे हो और जो मद्य-मदिरा से भरे भोजन वहाँ रखे हो और फिर मध से लीपित शिला के पड़ हो उसे देखकर उन्हें काफी संतोष, आनन्द, बड़ी तुष्टि, महाप्रमोद होता है । इस प्रकार मद्य-मदिरा पकाए हए माँस खाते-खाते साँत-आँठ, पंद्रह दिन जितने में पसार होते है । उतने में रत्नद्वीप निवासी लोग इकट्ठे होकर कुछ लोगों ने बख्तर कुछ लोगों ने आयुध धारण किए हो, वो उस वज्रशिला को चीपककर साँत-आँठ पंक्ति में घेर लेते है । और फिर रत्नद्वीपवासी दुसरे कुछ उस शिला पड़ को घंटाल पर इकट्ठा हो वैसे रखते है । जब दो पड़ इकट्ठे किए जाए तब हे गौतम ! एक चपटी बजाकर उसके तीसरे हिस्से के काल में उसके भीतर फँसे में से एक या दो बाहर नीकल जाते है । उसके बाद वो रत्नद्वीपवासी पेड़ सहित मंदिर और महल वहाँ बनाते है । उसी समय उसके हाड़ का-शरीर का विनाशकाल पेदा होता है उस प्रकार हे गौतम ! उस वज्रशिला के चक्की के दो पड़ के बीच पीसकर पीसतेपीसते जब तक सारी हड्डिया दबकर अच्छी तरह न पीसे और चूर्ण न हो तब तक वो अंगोलिक के प्राण अलग नहीं होते । उसके अस्थि वज्ररत्न की तरह मुश्कील से पीस शके वैसे मजबूत होते है । यहाँ उसको वज्रशिला के दो पड़ के बीच रखकर काले बैल जुड़कर काफी कोशिश के बाद रेंट, की तरह गोल भमाड़ाते है । एक साल तक पीसने की कोशीश चालू होने के बाद भी उसकी मजबूत अस्थि के टुकड़े नहीं होते । उस समय उस तरह के अति घोर दारुण शारीरिक और मानसिक महादुःख के दर्द का कठिन अहेसास करने के बाद भी प्राण भी चले गए होने के बाद भी जिसके अस्थिभंग नहीं होते, दो हिस्से नहीं होते, पीसते नहीं, घिसते नहीं लेकिन जो किसी संधिस्थान जोड़ो का और बंधन का स्थान है वो सब अलग होकर जर्जरीभूत होते है । उसके बाद दुसरी सामान्य पत्थर की चक्की की तरह फिसलनेवाले ऑटे की तरह कुछ ऊँगली आदि अग्रावयव के अस्थिखंड़ देखकर वो रत्नद्वीपवासी लोग आनन्द पाकर शिला के पड़ ऊपर उठाकर उसकी अंडगोलिका ग्रहण करके उसमें जो शुष्क-नीरस हिस्सा हो वो कई धनसमूह ग्रहण करके बेच डालते है । इस प्रकार से वो रत्नद्वीप निवासी मानव अंतरंड़ गोलिका ग्रहण करते है । हे भगवंत ! वो बेचारे उस तरह का अति घोर दारूण तीक्ष्ण दुःस्सह दुःखसमूह को सहते हुए आहार-जल बिना एक साल तक किस तरह प्राण धारण करते होंगे? हे गौतम ! खुद के किए कर्म के अनुभव से इसका विशेष अधिकार जानने की इच्छावाले को प्रत्र व्याकरण सूत्र के वृद्ध विवरण से जान लेना । [६७९] हे भगवंत ! वहाँ मरकर उस सुमति का जीव कहाँ उत्पन्न होगा । हे गौतम! वहीं वो प्रतिसंताप दायक नाम की जगह में, उसी क्रम से साँत भव तक अंड्गोलिक मानव रूप से पेदा होगा । उसके बाद दुष्ट श्वान के भव , उसके बाद काले धान में, उसके बाद
SR No.009789
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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