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________________ महानिशीथ-४/-/६७६ अमृत भी कालकूट विष लगता है । [६७७] ऐसा सुनकर सुमति ने कहा कि तुम ही सत्यवादी हो और इस प्रकार बोल शकते हो । लेकिन साधु के अवर्णवाद बोलना जरा भी उचित नहीं है । वो महानुभाव के दुसरे व्यवहार पर नजर क्यों नहीं करते ? छठ्ठ, अठ्ठम, चार पाँच उपवास मासक्षमण आदि तप करके आहार ग्रहण करनेवाले ग्रीष्म काल में आतापना नहीं लेते । और फिर विरासन उत्कटुकासन अलग-अलग तरह के अभिग्रह धारण करना, कष्टवाले तप करना इत्यादी धर्मानुष्ठान आचरण करके माँस और लहूँ जिन्होंने सूखा दिए है, इस तरह के गुणयुक्त महानुभाव साधुओ को तुम जैसे महान् भाषा समितिवाले बड़े श्रावक होकर यह साधु कुशीलवाले ऐसा संकल्प करना युक्त नहीं है । १९ उसके बाद नागिल ने कहा कि हे वत्स ! यह उसके धर्मअनुष्ठान से तु संतोष मत कर । जैसे कि आज में- अविश्वास से लूट चूका हूँ, बिना इच्छा से आए हुए पराधीनता से भुगतने के दुःख से.. अकाम निर्जरा से भी कर्म का क्षय होता है तो फिर बालतप से कर्मक्षय क्यों न हो ? इन सबको बालतपस्वी मानना । क्या तुम्हें उनका उत्सूत्रमार्ग का अल्प सेवनपन नहीं दिखता ? और फिर हे वत्स सुमति ! मुजे यह साधु पर मन से भी सुक्ष्म प्रद्वेष नहीं कि जिससे मैं उनका दोष ग्रहण करूँ । लेकिन तीर्थंकर भगवंत के पास से उस प्रकार अवधारण किया है कि कुशील को मत देखना । तब सुमति ने उसे कहा कि, 'जिस तरह का तू निर्बुद्धि है उसी तरह के वो तीर्थंकर होंगे जिसने तुम्हें इस प्रकार कहा । उसके बाद इस प्रकार बोलनेवाले सुमति के मुख रूपी छिद्र को अपने हस्त से बंध करके नागिल ने उसे कहा कि- जगत के महान गुरु, तीर्थंकर भगवंत की आशातना मत कर । मुझे तुम्हें जो कहना हो वो कहो, मैं तुम्हें कोई प्रत्युत्तर नहीं दूँगा । तब सुमति ने उसे कहा कि इस जगत में यह साधु भी यदि कुशील हो तो फिर सुशील साधु कहीं नहीं मिलेंगे तब नागिल ने कहा कि सुमति ! यहाँ जगत में अलंघनीय वचनयुक्त भगवंत का वचन मान सहित ग्रहण करना चाहिए । आस्तिक आत्मा को उसके वचन में किसी दिन विसंवाद नहीं होता और फिर बाल तपस्वी की चेष्टा में आदर मत करना क्योंकि जिनेन्द्र वचन अनुसार यकीनन वो कुशील दिखते है । उनकी प्रवज्या के लिए गंध भी नहीं दिखती । क्योंकि यदि इस साधु के पास दुसरी मुँहपोतिका दिखती है । इसलिए यह साधु ज्यादा परिग्रहता दोष से कुशील है । भगवंत ने हस्त में ज्यादा परिग्रह धारण करने के लिए साधु को आज्ञा नहीं दी । इसलिए हे वत्स ! हीन सत्त्ववाला भी मन से ऐसा अध्यवसाय न करे कि शायद मेरी यह मुँहपोतिका फटकर - तूटकर नष्ट होगी तो दुसरी कहाँ से मिलेगी ? वो हीनसत्त्व ऐसा नहीं सोचता कि अधिक और अनुपयोग से उपधि धारण करने से मेरे परिग्रह व्रत का भंग होगा या क्या संयम में रंगी आत्मा संयम में जरुरी धर्म के उपकरण समान मुँहपत्ति जैसे साधन में सिदाय सही ? जरुर वैसी आत्मा उसमें विषाद न पाए । सचमुच वैसी आत्मा खुद को मैं हीन सत्त्ववाला हूँ, ऐसा प्रगट करता है, उन्मार्ग के आचरण की प्रशंसा करता है । और प्रवचन मलिन करता है । यह सामान्य हकीकत तुम नहीं देख शकते ? इस साधु ने कल बिना वस्त्र की स्त्री के शरीर को रागपूर्वक देखकर उसका चिन्तवन
SR No.009789
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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